क्यों पढ़े आरोग्य आपका   ?

स्वस्थ रहें या रोगी?: फैसला आपका

स्वावलम्बी अहिंसक चिकित्सा

( प्रभावशाली-मौलिक-निर्दोष-वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धतियाँ )

स्वर का हमारे जीवन पर प्रभाव


शरीर में नाड़ियों की भूमिका

                नाड़ियाँ चेतनाशील प्राणियों के शरीर में वे मार्ग हैं, जिनमें से होकर प्राण ऊर्जा शरीर के विभिन्न भागों में प्रवाहित होती है। मूलधारा चक्र से सहस्रार चक्र तक शरीर में 72000 ऐसी नाड़ियों का हमारे पौराणिक ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है। हमारे शरीर में मेरूदण्ड के पास तीन मुख्य नाड़ियाँ होती है। ईडा (चन्द्र), पिंगला (सूर्य) तथा दोनों के बीच में सुषुम्ना नाड़ी होती है। ये तीनों नाड़ियाँ मूलधारा चक्र से सहस्रार चक्र तक मुख्य रूप से प्राण ऊर्जा को प्रवाहित करती है। जिन स्थानों पर चन्द्र, सूर्य और सुषुम्ना नाड़ियाँ आपस में मिलती है, उनके संगम को शरीर में ऊर्जा चक्र अथवा शक्ति केन्द्र कहते हैं। मुख्य नाड़ियों का आपस में एक दूसरे से सीधा संबंध होता है। उनके सम्यक् संतुलन से ही शरीर के ऊर्जा चक्र सजग एवं सक्रिय रहते हैं। अन्तःस्रावी गन्थियाँ क्रियाशील होती है। व्यक्ति का मनोबल दृढ़ होता है। व्यक्ति सजग होता है और उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता अच्छी होती है। व्यक्ति स्वस्थ रहता है और उसका आभा मंडल आकर्षक बन जाता है। सोच सकारात्मक और इच्छा शक्ति प्रबल हो जाती है।

स्वर योग क्या है?

                नासिका द्वारा श्वास लेने एवं छोड़ते समय जो अव्यक्त ध्वनि होती है, उसको स्वर कहते हैं। जब हम श्वास बांयें नथुने से लेते हैं उस समय ईडा अर्थात् चन्द्र नाड़ी सक्रिय होती है और उसके स्वर को चन्द्र स्वर का चलना कहते हैं। इसी प्रकार जब हम श्वास दाहिने नासाग्र से लेते हैं, उस समय पिंगला अर्थात् सूर्य नाड़ी अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय होती है और उसके स्वर को सूर्य स्वर कहते हैं। परन्तु जब हम दोनों नासाग्रों से समान रूप से श्वास लेते हैं तो उस समय सुषुम्ना नाड़ी सक्रिय होती है और उसके स्वर को सुषुम्ना स्वर कहते हैं। जब श्वशन क्रिया बांयें नासाग्र से दाहिने-नासाग्र में बदलती है, उस समय अल्प समय के लिए सुषुम्ना नाड़ी सक्रिय होती है, परन्तु योगाभ्यास की कुछ प्रक्रियाओं से इस अवधि को आवश्यकतानुसार बढ़ाया भी जा सकता है। स्वस्थ शरीर में प्रायः एक घंटे पश्चात् चन्द्र और सूर्य स्वर सहज रूप से स्वतः बदलते रहते हैं। स्वस्थ शरीर में चन्द्र एवं सूर्य स्वर निश्चित क्रम एवं संतुलित रूप से चलते हैं और यदि ऐसा न हो तो शरीर में रोग होने की संभावनाएँ बनी रहती है। शरीर में कुछ भी गड़बड़ होते ही गलत स्वर चलने लगता है। नियमित रूप से सही स्वर अपने निर्धारित समयानुसार तब तक नहीं चलता, जब तक शरीर पूर्ण रूप से रोग मुक्त नहीं हो जाता। जैसे यदि किसी ने विषाक्त भोजन कर लिया है तो तुरन्त गलत स्वर चलने लग जायेगा। स्वर संचालन की अवधि में असंतुलन हो जायेगा और उसका संतुलन तब तक सही नहीं होगा जब तक वह व्यक्ति रोग से पूर्ण मुक्त न हो जाए। सूर्य स्वर शक्ति एवं चन्द्र स्वर शान्ति और सौम्यता का प्रतीक होता है।

शरीर में दो नासाग्र क्यों?

                आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान की दृष्टि से नाक में दोनों छिद्रों (नासाग्रों) का विशेष महत्त्व नहीं होता। उनके अनुसार श्वशन चाहे बांयें छिद्र से लें अथवा दाहिनें छिद्र से लें कोई अन्तर नहीं पड़ता, क्योंकि दोनों नासाग्र आगे जाकर एक हो जाते हैं। प्राणायाम में भी मात्र श्वास के रेचक, पूरक एवं कुम्भक पर अधिक महत्त्व दिया जाता है। श्वशन के बांयें नासाग्र से अथवा दांयें नासाग्र से लेने से पड़ने वाले प्रभावों की तरफ विशेष ध्यान नहीं दिया जाता। शरीर में प्रत्येक भाग का कुछ न कुछ उपयोग अवश्य होता है। कोई भाग अनावश्यक नहीं होता। हम यह अनुभव कर सकते हैं कि जुकाम के कारण एवं नासाग्र में अवरोध न होने के बावजूद कभी श्वशन क्रिया एक नासाग्र में दूसरे नासाग्र की अपेक्षा अधिक एवं सहज होती है तो कुछ समय पश्चात् वैसी ही स्थिति दूसरे नासाग्र में होने लगती है। ऐसा क्यों? निश्चित अवधि के पश्चात् स्वतः इसमें परिवर्तन क्यों और कैसे हो जाता है? परन्तु स्वर विज्ञान के अनुसार नाक के दोनों नासाग्रों की अहं भूमिका होती है। शरीर के दोनों नासाग्रों का उपयोग मात्र श्वशन लेने अथवा छोड़ने तक ही सीमित नहीं होता अपितु दोनों नासाग्रों से सजगतापूर्वक सही और निश्चित नियमों के अनुसार व्यवस्थित संचालित एवं नियन्त्रित श्वशन क्रिया करने से हम अपनी क्षमताओं का अधिकतम उपयोग लेते हुए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आने वाली समस्याओं का सम्यक् समाधान पा सकते हैं।

                अगर कोई मशीन निर्माता किसी मशीन का निर्माण करे परन्तु उपभोक्ता उसके मार्गदर्शन के अनुसार उस मशीन का उपयोग न करे, जिससे मशीन बराबर कार्य न करें तो उस मशीन में खराबी आना संभव है। उसमें उस मशीन अथवा उसके निर्माता का क्या दोष? उसी प्रकार श्वशन क्रिया करते समय यदि हम प्रकृति के सिद्धान्तों की अनदेखी करते हैं तो हमारे स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव की पूर्ण संभावनाएँ रहती है।

                भारतीय विद्याओं में स्वर ज्ञान का विशेष महत्त्व है। वर्तमान में वैज्ञानिक शोध के अभाव में इस ज्ञान की यर्थातता अनुमान से नहीं अनुभव से ही सिद्ध हो सकती है। उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इसकी जानकारी सर्व प्रथम शिवजी ने पार्वती को दी। इसी कारण स्वर विज्ञान को शिवस्वरोदय भी कहते हैं। इसमें मानव जीवन से संबंधित प्रत्यक्ष-परोक्ष विविध समस्याओं के समाधान का मार्गदर्शन मिलता है।

स्वरों की पहचान कैसे करें?-

                नथूने के पास अपनी अंगुलियां रख श्वसन क्रिया का अनुभव करें। जिस समय जिस नथूने से अपेक्षाकृत अधिक श्वास प्रवाह होता है, उस समय उस स्वर की प्रमुखता होती है। बांयें नथूने से श्वास चलने पर चन्द्र स्वर, दाहिने नथूने से श्वास चलने पर सूर्य स्वर तथा दोनों नथूने से समान श्वास चलने की स्थिति को सुषुम्ना स्वर का चलना कहते हैं।

                स्वर को पहचानने का दूसरा तरीका है कि हम बारी-बारी से एक नथूना बंद कर दूसरे नथूने से श्वास लें और छोड़ें । जिस नथूने से श्वसन सरलता से होता है, उस समय उससे सम्बन्धित स्वर प्रभावी होता है।

चलित स्वर को बदलने की विधियाँ:-

                अस्वाभाविक अथवा प्रवृत्ति की आवश्यकता के विपरीत स्वर शरीर में अस्वस्थता का सूचक होता है। निम्न विधियों द्वारा स्वर को सरलतापूर्वक कृत्रिम ढंग से बदला जा सकता है, ताकि हमें जैसा कार्य करना हो उसके अनुरूप स्वर का संचालन कर प्रत्येक कार्य को सम्यक् प्रकार से पूर्ण क्षमता के साथ कर सकें।

  1. जो स्वर चलता हो, उस नथूने को अंगुलि से या अन्य किसी विधि द्वारा थोड़ी देर तक दबाये रखने से, विपरीत इच्छित स्वर चलने लगता है।
  2. चालू स्वर वाले नथूने से पूरा श्वास ग्रहण कर, बन्द नथूने से श्वास छोड़ने की क्रिया बार-बार करने से बन्द स्वर चलने लगता है।
  3. जो स्वर चालू करना हो, शरीर में उसके विपरीत भाग की तरफ करवट लेकर सोने तथा सिर को जमीन से थोड़ा ऊपर रखने से इच्छित स्वर चलने लगता है।
  4. जिस तरफ का स्वर बंद करना हो उस तरफ की बगल में दबाव देने से चालू स्वर बंद हो जाता है तथा इसके विपरीत दूसरा स्वर चलने लगता है।
  5. जो स्वर बंद करना हो, उसी तरफ के पैरों पर दबाव देकर, थोड़ा झुक कर उसी तरफ खड़ा रहने से या उस तरफ गर्दन को घुमाकर ठोडी पर रखने से कुछ मिनटों में उस तरफ का स्वर बंद हो जाता है।
  6. चलित स्वर में स्वच्छ रूई डालकर नथूने में अवरोध उत्पन्न करने से स्वर बदल जाता है।
  7. पदमासन में बैठ जायें। जो स्वर चलाना हो, उस पैर को ऊपर रखें और जिस स्वर को बंद करना हो उसे नीचें रखें। इच्छित स्वर कुछ देर में ही चलने लगेगा।
  8. अर्द्ध वज्रासन द्वारा भी स्वर परिवर्तन किया जा सकता है। जो स्वर चलता हो उस पैर के घुटने को खड़ा रख चलित स्वर वाले पंजे को मोड़कर बैठने से इच्छित स्वर चलने लगता है। इसी कारण प्रतिक्रमण की साधना में विनम्रता के सूचक चन्द्र स्वर को चलाने हेतु अरिहंतों एवं सिद्धों की स्तुति हेतु णमोत्थुणं पाठ का उच्चारण करते समय बांये घुटने को खड़ा रखा जाता है। श्रावक सूत्र में व्रतों को ग्रहण करते समय दृढ़ता के सूचक सूर्य स्वर को सक्रिय करने हेतु दाहिने घुटने को खड़ा रखने का निर्देश दिया गया है।

चन्द्र सूर्य से प्रभावित मानव जीवनः-

                सृष्टि की रचना में सूर्य और चन्द्र का महत्वपूर्ण स्थान होता है। हमारा जीवन अन्य ग्रहों की अपेक्षा सूर्य और चन्द्र से अधिक प्रभावित होता है। उसी के कारण दिन-रात होते हैं तथा जलवायु बदलती रहती है। समुद्र में ज्वार भी सूर्य एवं चन्द्र के कारण आते हैं। हमारे शरीर में भी लगभग दो तिहाई भाग पानी होता है। सूर्य और चन्द्र के गुणों में बहुत विपरीतता होती है। एक गर्मी का तो दूसरा ठण्डक का स्रोत माना जाता है। सर्दी और गर्मी सभी चेतनाशील प्राणियों को बहुत प्रभावित करते हैं। शरीर का तापक्रम 98.4 डिग्री फारेनाइट निश्चित होता है और उसमें बदलाव होते ही रोग होने की संभावना होने लगती है। मनुष्य के शरीर में भी सूर्य और चन्द्र की स्थिति शरीरस्थ इन नाड़ियों में मानी गई है। स्वर विज्ञान-सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों को शरीर में स्थित इन नाड़ियों की सहायता से अनुकूल बनाने वाला विज्ञान है।

स्वर का हमारे शरीर पर प्रभावः-

                जब चन्द्र स्वर चलता है तो शरीर में ठण्डक बढ़ने लगती है और जब सूर्य स्वर सक्रिय होता है तो शरीर में उष्णता बढ़ने लगती है। जब तक शरीर में ठण्डक और उष्णता का संतुलन रहता है तभी तक हमारा शाकाहारी और मानसिक स्वास्थ्य प्रायः अच्छा होता है।

                अतः जब शरीर में ठण्डक हो तो सूर्य स्वर को सक्रिय कर तथा जब उष्णता अधिक हो तो चन्द्र स्वर चलाकर ठण्डक और उष्णता को नियन्त्रित किया जा सकता है। दिन में रात्रि की अपेक्षा सूर्य की उपस्थिति के कारण उष्णता सहज रूप से अधिक रहती है अतः यदि चन्द्र स्वर अधिक चले और रात्रि में ठण्डक के कारण सहज रूप से जिसका सूर्य स्वर चलता है, वह व्यक्ति दीर्घ जीवित होता है। चन्द्र नाड़ी मस्तिष्क के दाहिने भाग में तथा सूर्य नाड़ी मस्तिष्क के बांयें भाग में स्थित होती है। अतः जब चन्द्र स्वर सक्रिय होता है तो मस्तिष्क के दाहिने भाग में प्राण ऊर्जा का प्रवाह अपेक्षाकृत अधिक होता है। ठीक इसी प्रकार जब सूर्य स्वर सक्रिय होता है तो मस्तिष्क के बांयें भाग में अपेक्षाकृत अधिक प्राण ऊर्जा का प्रवाह होता है। अतः मस्तिष्क से संबंधित बांयें अथवा दांयें भाग के रोगों को स्वर संतुलन कर ठीक किया जा सकता है। हमारे मस्तिष्क का अर्द्ध बांया भाग आज्ञा चक्र के नीचे शरीर के दाहिने भाग को और मस्तिष्क का अर्द्ध दाहिना भाग आज्ञा चक्र के नीचे शरीर के बांयें भाग की गतिविधियों को नियन्त्रित करता है। इसी कारण मस्तिष्क के बांयें भाग की नाड़ी में कभी अवरोध आने से शरीर के दाहिने भाग में पक्षाघात हो जाता है और इसी प्रकार मस्तिष्क के दाहिने भाग की नाड़ियों में अवरोध आने से शरीर के बांयें भाग में पक्षाघात हो जाता है। अतः शरीर के बांयें भाग के रोगों में चन्द्र स्वर एवं दाहिने भाग के रोगों में सूर्य स्वर का प्रभाव अपेक्षाकृत अधिक पड़ता है।

                हमारे मस्तिष्क के चन्द कार्य दायें और बायें भाग से अलग-अलग भी होते हैं। परिणामस्वरूप चन्द्र स्वर की सक्रियता में हम दाहिनें मस्तिष्क  के कार्य अर्थात् चिन्तन, मनन, अध्ययन, लेखन, शान्त, सौम्य, मानसिक एवं स्थायी कार्य पूर्ण क्षमता से कर सकते हैं जबकि सूर्य स्वर की सक्रियता के समय बांयें मस्तिष्क से संबंधित जोश, साहसिक, दृढ़ता, उत्तेजना, शाकाहारी श्रम वाले कार्य सही ढंग से प्रतिपादित कर सकते हैं। यदि सही स्वर में सही कार्य किया जाए तो हमें प्रत्येक कार्य में अपेक्षित सफलता सरलता से प्राप्त हो सकती है।

स्वर योग के अभ्यास का क्रमः-

                अभ्यास द्वारा चन्द्र एवं सूर्य स्वर को आवश्यकतानुसार चलाया भी जा सकता है। अभ्यास का तात्पर्य चन्द्र स्वर को बदल तुरन्त सूर्य स्वर चलाना। इसी भांति सूर्य स्वर चलता हो तो बदलकर तुरन्त चन्द्र स्वर सक्रिय करना। इस दुनिया में सभी स्थानों पर दिन-रात, सर्दी-गर्मी, खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार एवं बाह्य वातावरण प्रायः एक जैसा नहीं होता। अतः स्वर संचालन का भी समान रूप से एकसा नियम प्रतिपादित नहीं किया जा सकता। कार्य की आवश्यकता एवं वातावरण के अनुरूप संतुलित, नियन्त्रित, नियमित दोनों नासाग्र द्वारा स्वर संचालन से हम सुखी, रोग मुक्त, तनाव मुक्त जीवन जी सकते हैं। प्रकृति ने हमें सुखी एवं रोग मुक्त जीवन जीने के सारे साधन उपलब्ध करा रखे हैं, परन्तु हमें उसकी भाषा को समझ शाकाहारी एवं मानसिक प्रवृत्तियाँ करनी होगी, जिससे हम अपनी क्षमताओं का अधिकतम उपयोग कर सकें एवं हमें अपने कार्य में सफलता मिले।

                यदि हमारा जीवन प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों के अनुसार संचालित होता है तो स्वर स्वतः सही चलने लगता है। अभ्यास द्वारा जब स्वर के प्रवाह की ठीक जानकारी हो जाये, उसके पश्चात् निन्द्रा त्यागने से लगाकर रात्रि में सोते समय तक स्वर प्रवाह की अवधि का चार्ट चंद दिनों का बनाना चाहिये। जिससे हम यह जान सके कि हमारा कौनसा स्वर कब और कितना चलता है। मौसम एवं वातावरण के अनुसार उसमें क्या परिवर्तन होता है। क्योंकि चन्द्रमा अपनी कलाओं के अनुसार रात्रि में सदैव एकसा प्रकाश नहीं फेंकता और सूर्य भी दक्षिणातयन से उत्तरायतन अथवा उत्तरायतन से दक्षिणायतन की तरफ आता-जाता रहता है। इस अभ्यास से स्वर योग के मुख्य नियम एवं शिव स्वरोदय में वर्णित विभिन्न अनुभूत तथ्यों की सच्चाई सरलता से समझ में आने लगती है।

स्वरों से रोगोपचार

                स्वर चिकित्सा सहज, सरल, सस्ती, पूर्णतः निर्दोष, सर्वत्र उपलब्ध, सर्वकालिक, पूर्णतः वैज्ञानिक, स्वावलंबी, अहिंसक, बिना किसी दवा एवं डाॅक्टर स्वस्थ बनाने वाली, प्रभावशाली चिकित्सा पद्धति है जिससे बिना किसी दुष्प्रभाव न केवल अच्छा स्वास्थ्य अपितु जीवन की विविध समस्याओं का समाधान प्राप्त किया जा सकता है। रोगों के उपचार हेतु स्वरयोग से, औषधि एवं अन्य चिकित्सा पद्धतियों से प्रायः शीघ्र अच्छे परिणाम मिलते हैं। स्वर की प्रक्रिया बिगड़ने से भी रोग हो जाते हैं। अतः स्वरों का यथा संभव शोधन करते रहना चाहिए।               

  1. गर्मी सम्बन्धी रोग- मानसिक अशान्ति, आवेग, उत्तेजना, गर्मी, लू, प्यास, बुखार, पीत्त सम्बन्धी रोगों, उच्च रक्तचाप में चन्द्र स्वर चलाने से शरीर में शीतलता बढ़ती है, जिससे गर्मी से उत्पन्न असंतुलन अर्थात् रोग दूर हो जाते हैं।
  2. कफ सम्बन्धी रोग- सर्दी, जुकाम, खांसी, दमा आदि कफ सम्बन्धी रोगों, निम्न रक्तचाप में सूर्य स्वर अधिकाधिक चलाने से शरीर में गर्मी बढ़ती है। सर्दी का प्रभाव दूर होता है। अतः ठण्डक संबंधी रोग ठीक होते हैं।
  3. आकस्मिक रोग- जब रोग का कारण समझ में न आये और रोग की असहनीय स्थिति हो, ऐसे समय रोग का उपद्रव होते ही जो स्वर चल रहा है उसको बन्द कर विपरीत स्वर चलाने से तुरन्त राहत मिलती है। शरीर में विजातीय तत्त्वों के जमा हो जाने एवं बराबर निश्कासन न होने से प्राण ऊर्जा के प्रवाह में अवरोध उत्पन्न होने लगता है। परिणामस्वरूप प्रभावित अंग, उपांग, तंत्र अपनी पूर्ण क्षमता से कार्य नहीं कर पाते, जिससे शरीर रोग ग्रस्त होने लगता है। स्वर संतुलन से प्राण ऊर्जा का प्रवाह पुनः बराबर होने से, विजातीय तत्त्व दूर होने लगते हैं तथा व्यक्ति स्वस्थ होने लगता है। असाध्य रोग ठीक होने लगते हैं एवं कभी-कभी शल्य चिकित्सा की भी आवश्यकता नहीं रहती। विजातीय तत्त्वों के जमा होने से जो गांठ बनती है वह बिखरने लगती है। निष्क्रिय अंगों में प्राण ऊर्जा का प्रवाह आवश्यकतानुसार होने से निष्क्रिय अंग पुनः सक्रिय होने लगते हैं। अतः सभी प्रकार के असाध्य एवं संक्रामक रोग स्वर संतुलन द्वारा ठीक हो सकते हैं।

                चन्द्र और सूर्य  स्वर के असन्तुलन से सुस्ती, अनिद्रा, थकावट, चिंता आदि सभी रोगों का जन्म होता है। अतः दोनों का संतुलन और सामन्जस्य स्वस्थता हेतु अनिवार्य होता है। लम्बे समय तक रात्रि में लगातार चन्द्र स्वर चलना और दिन में सूर्य स्वर चलना, रोगी के खराब स्वास्थ्य का सूचक होता है। निरन्तर चलते हुए सूर्य या चन्द्र स्वर के बदलने के सारे उपाय करने पर भी यदि स्वर न बदले तो रोग असाध्य होता है तथा उस व्यक्ति की मृत्यु समीप होती है। दोनों स्वरों के प्रवाह की अवधि में जितना ज्यादा असंतुलन होता है उतना ही व्यक्ति अस्वस्थ अथवा रोगी होता है। संक्रामक और असाध्य रोगों में यह अन्तर काफी बढ़ जाता है। लम्बे समय तक एक ही स्वर चलने पर व्यक्ति की मृत्यु शीघ्र होने की संभावाना रहती है। अतः सजगता पूर्वक स्वर चलने की अवधि को समान कर असाध्य एवं संक्रामक रोगों से मुक्ति पाई जा सकती है।

                असाध्य रोगियों के उपचार में स्वर परिवर्तन के साथ-साथ सामूहिक ओम् अथवा प्रभावशाली किसी मंत्र का जाप करने से अच्छे परिणाम आते हैं। जाप की तरंगों के प्रवाह से न केवल आसपास का वातावरण ही शुद्ध होता है अपितु रोगी के स्वर का भी शोधन होने लगता है, जिससे उसके स्वास्थ्य में लाभ होने लगता है।

                आसन, प्राणायाम, नमस्कार, स्वाध्याय, प्रार्थना, तप-जप, सकारात्मक सोच, ध्यान जैसी सम्यक् अनुप्रेक्षा एवं कषाय को घटाने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति से शरीर एवं मन का आन्तरिक शोधन तथा तनाव कम होता है, आभा मण्डल शुद्ध होता है, श्वास की गति मंद होती है। स्वर संतुलित होने लगता है। अतः व्यक्ति का स्वास्थ्य अपेक्षाकृत अच्छा रहता है। जैन साधक एवं श्रावक के लिए अति आवश्यक कार्य प्रातः एवं सायंकालीन विधि पूर्वक प्रतिक्रमण करने से व्यक्ति में अपने दोषों का निरीक्षण होता है जिससे मानसिक तनाव दूर होता है। साथ ही शरीर के विभिन्न आसनों, मुद्राओं एवं वंदना-ध्यान करने से स्वर नियमित चलने लगते हैं जिससे प्रत्येक कार्य व्यवस्थित होने की संभावनाएँ बढ़ जाती है। 

कौनसा स्वर कब लाभप्रद अथवा हानिकारक?

                शिव स्वरोदय में कौनसा कार्य कब और किस स्वर में करने हेतु विस्तृत विवेचन किया गया है ताकि प्रतिकूलताओं से यथा संभव बचा जा सके एवं अपनी क्षमताओं का अधिकतम उपयोग किया जा सके। उसी के अनुसार चन्द्र जनसाधारण के लिए उपयोगी मार्गदर्शक जानकारियाँ यहाँ प्रेषित है।

चन्द्र स्वर के कार्यः- जिसमें शाकाहारी ताकत की अधिक आवश्यकता नहीं होती। ऐसे मानसिक शान्ति से जुड़े सारे कार्य। जैसेः- चिन्तन, मनन, प्रार्थना, जप, स्वाध्याय आदि कार्य। शुभ एवं स्थायी कार्य जैसे गृह प्रवेश, विवाह, दीक्षा, नवीन आभूषण, दोस्ती करना, दवा लेना, उपचार करना इत्यादि कार्यो को चन्द्र स्वर में करने से इच्छित फल प्राप्ति की संभावनाएँ बढ़ जाती है। तरल पदार्थो का सेवन, मूत्र त्याग भी चन्द्र स्वर में करना चाहिए। परन्तु गर्म पेय का सेवन सूर्य स्वर में ही करना चाहिए अन्यथा खांसी, सिरदर्द एवं जुकाम हो सकता है।

सूर्य स्वर में करने योग्य कार्यः- जिन कार्यो के लिए शाकाहारी ऊर्जा एवं मानसिक दृढ़ता की विशेष आवश्यकता हो, ऐसे कठिन एवं श्रम साध्य कार्य, व्यायाम, आवेग, जोश एवं उत्तेजना पूर्वक करने वाले कार्यो को सूर्य स्वर में करने से अपेक्षित परिणाम मिलने की पूर्ण सम्भावना रहती है। सूर्य स्वर में मल त्याग करने से पेट साफ रहता है। उदर रोग की संभावनाएँ अपेक्षाकृत कम रहती है। भोजन करते समय एवं उसके पश्चात् लगभग एक घण्टा सूर्य स्वर चलाने से पाचन अच्छा होता है।

सुषुम्ना स्वर के कार्यः- सुषुम्ना स्वर में चिन्तन किया गया सोच, विचार, भावना और अभिव्यक्त की हुई अच्छी या बुरी भविष्यवाणी प्रायः शत-प्रतिषत सत्य साबित होती है। अतः उस समय हमेशा सकारात्मक सोच एवं सर्वहितकारी मंगल भावना का ही चिन्तन करना चाहिये। उस समय का उपयोग प्रभु स्मरण, आत्मचिन्तन, स्वनिरीक्षण एवं शुभ संकल्प, व्रत, प्रत्याख्यान लेने हेतु श्रेष्ठ होता है।

  1. घर से बाहर जाते समय जो स्वर चल रहा हो, उसी तरफ के पैर को पहले जमीन पर रखना चाहिए। परन्तु बाहर यात्रा पर जाते समय चन्द्र स्वर में ही यात्रा प्रारम्भ एवं सूर्य स्वर में घर में प्रवेश करना श्रेयस्कर होता है।
  2. प्रातःकाल निद्रा त्यागने के पश्चात् जो स्वर चलता है उस तरफ के हाथ की हथेली से चेहरे के उसी तरफ स्पर्श कर शय्या से उठते समय जमीन पर उसी तरफ का पांव रख कर चलने से वह पूरा दिन प्रायः मंगलमय होता है।
  3. शुक्ल पक्ष की द्वितीया के दिन सूर्यास्त के समय यदि चन्द्र स्वर सहजता से चलता हो तो वह पक्ष उस व्यक्ति के लिए अत्यन्त कल्याणकारी होता है। कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को सूर्योदय के समय सहज रूप से सूर्य स्वर यदि चलता है तो वह व्यक्ति के अच्छे स्वास्थ्य का सूचक होता है, जबकि शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को सूर्योदय के समय सूर्य स्वर चलता हो तो उस व्यक्ति का स्वास्थ्य प्रायः अच्छा नहीं होता।
  4. चन्द्र स्वर सभी शुभ, स्थायी कार्यो के लिए श्रेष्ठ होता है। जबकि सभी क्रूर, साहसी एवं ताकत वाले कार्य सूर्य स्वर में शीघ्र फलदायक होते हैं।
  5. चन्द्र और सूर्य स्वरों का सही अभ्यास करने वाले साधक को भविष्य ज्ञान की अनुभूति होने लगती है। क्रोध एवं काम को प्रेम एवं ब्रह्मचर्य में रूपान्तरण करने की क्षमता प्राप्त होने लगती है। भविष्य में होने वाली घटनाओं का उसे पूर्वाभ्यास होने लग सकता है।
  6. यदि किसी व्यक्ति का अकेला चन्द्र स्वर दिन रात चलता है तो उस व्यक्ति की मृत्यु अधिकतम तीन साल में संभावित होती है।
  7. यदि किसी व्यक्ति का दिन भर सूर्य स्वर और रातभर चन्द्र स्वर चले तो उसकी मृत्यु लगभग छः मास के अन्दर संभावित होती है।
  8. यदि महिने भर तक दिन रात मात्र सूर्य स्वर प्रवाहित हो तो मात्र तीन मास में व्यक्ति की मृत्यु हो सकती है।
  9. यदि सुषुम्ना स्वर सहज रूप से दो घण्टे तक लगातार चले तो व्यक्ति की मृत्यु 24 घण्टे के अन्दर हो सकती है।

                स्वर योग जीवन जीने की कला है। स्वर से ही राशि-नक्षत्रों एवं तिथि-लगन, मुर्हुर्त का संबंध होता है। अनुभवी स्वर योगी बिना ज्योतिष शास्त्र किसी भी व्यक्ति का भविष्य में संभावित शुभाशुभ बता सकता है। स्वयं के रोग के साथ-साथ दूसरे रोगी का भी उपचार कर सकता है। भूत-प्रेत बाधाओं का निवारण भी सरलता से कर सकता है। आधुनिक वैज्ञानिकों से अपेक्षा है कि स्वर योग पर शोध करे, इस हेतु आवश्यक स्वर मापक यंत्रों का निर्माण करें, ताकि जनसाधारण आत्म-विश्वासपूर्वक स्वर ज्ञान का उपयोग कर अपने जीवन को सुखी बना सकें।

                 जिज्ञासु व्यक्ति अनुभवी स्वर साधक से स्वरोदय विज्ञान का अवश्य गहन अध्ययन करें। क्योंकि स्वर विज्ञान से न केवल रोगों से ही बचा जा सकता है, अपितु प्रकृति के अदृष्य रहस्यों का भी पता लगाया जा सकता है। मानव देह में स्वरोदय एक ऐसी आश्चर्यजनक, सरल, स्वावलम्बी, प्रभावशाली, बिना किसी खर्च वाली चमत्कारी विद्या होती है, जिसका ज्ञान और सम्यक् पालना होने पर किसी भी सांसारिक कार्यो में असफलता की प्रायः संभावना नहीं रहती। स्वर विज्ञान के अनुसार प्रवृत्ति करने से साक्षात्कार में सफलता, भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वाभ्यास, सामने वाले व्यक्ति के अन्तरभावों को सहजता से समझा जा सकता है। जिससे प्रतिदिन उपस्थित होने वाली प्रतिकूल परिस्थितियों से सहज बचा जा सकता है। अज्ञानवश स्वरोदय की जानकारी के अभाव से ही हम हमारी क्षमताओं से अनभिज्ञ होते हैं। रोगी बनते हैं तथा अपने कार्यो में असफल होते हैं। स्वरोदय विज्ञान प्रत्यक्ष फलदायक है, जिसको ठीक-ठीक लिपीबद्ध करना संभव नहीं। केवल जनसाधारण के उपयोग की कुछ मुख्य सैद्धान्तिक बातों की आंशिक और संक्षिप्त जानकारी ही यहां दी गई है।

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