स्वास्थ्य मंत्रालय का कत्र्तव्य-
जब किसी चिकित्सा पद्धति को सरकारी मान्यता देने का प्रश्न उठाया जाता है तो उन्हें हमारा स्वास्थ्य मंत्रालय प्रायः बिना सोचे-समझे, बिना अध्ययन एवं शोध किये अवैज्ञानिक बतलाकर नकार देता है। स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रभारी अधिकारी न तो उसमें कार्यरत विशेषज्ञों से विचार-विमर्श करना आवश्यक समझते हैं और न उन विषयों पर प्रकाशित शोधपूर्ण साहित्य की खोज कर अध्ययन करने में भी रुचि रखते हैं। उनका मुख्य दायित्व है कि जनता के स्वास्थ्य की देखभाल करें। रोग के कारणों से प्रजा को सजग एवं सतर्क करें। रोगियों के लिये प्रभावशाली, सस्ती, स्वावलम्बी, दुष्प्रभावों से रहित चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध करावें तथा अन्य मंत्रालयों से समन्वय रख, स्वास्थ्य के लिये हानिकारक शारीरिक अथवा मानसिक प्रदूषण फैलाने वाली गतिविधियों, योजनाओं तथा प्रचार माध्यमों पर अंकुश लगायें। स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रभावशाली एवं उपयोगी, विश्व के किसी भी कोने में प्रचलित चिकित्सा-पद्धति को ध्यान में आते ही उसकी विशेष जानकारी प्राप्त करने की पहल करें। स्वास्थ्य के लिये हानिकारक, मांसाहार, शराब एवं अन्य दुव्र्यसनों पर प्रतिबन्ध तथा मनोरंजन के नाम पर काम-विकार, क्रूरता, हिंसा दर्शाने वाले दृश्यों, विज्ञापनों आदि को प्रचारित करने पर अंकुश लगाकर अपने दायित्व का निर्वाह करें।
स्वास्थ्य मंत्रालय का दृष्टिकोण-
आज स्वास्थ्य मंत्रालय अपने कत्र्तव्यों, दायित्वों के प्रति पूर्ण रूप से सजग प्रतीत नहीं हो रहा है। सारे स्वास्थ्य मंत्रालय पर अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति से सम्बन्धित विशेषज्ञों, दवा निर्माताओं के समर्थकों का एक छत्र आधिपत्य है। परिणामस्वरूप चिकित्सा हेतु भारत में अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति को ही लगभग पूर्णरूपेण वैज्ञानिक, मौलिक सर्वे-सर्वा माना जा रहा है तथा अन्य चिकित्सा पद्धतियों को वैकल्पिक, अवैज्ञानिक बताया जा रहा है। अंग्रेजी चिकित्सा के प्रचार-प्रसार एवं शोध हेतु नये-नये महाविद्यालय खोले जा रहे हैं। शोध हेतु अनुदान दिये जा रहे हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के बजट का अधिकांश प्रतिशत उन्हीं पर खर्च किया जा रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय का पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण, संकुचित मान्यताएँ, अंग्रेजी दवाईयों से पड़ने वाले दुष्प्रभावों को छिपाने की प्रवृत्ति एवं सिर्फ फायदे के एक पक्षीय मिथ्या आंकड़ों को प्रचारित करने से राष्ट्र की भोली-भाली जनता भ्रमित हो, अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रही है। स्वास्थ्य की समस्याएँ कम न करने में स्वास्थ्य मंत्रालय की नीतियाँ तथा असजगता आग में घी का काम कर रही हैं।
ऐसी परिस्थितियों में राष्ट्र के लिये बिना दवा उपचार की अधिक उपयोगी सरल, सुलभ, सस्ती, अहिंसक, स्वावलम्बी, अधिक प्रभावशाली, दुष्प्रभावों से रहित बिना दवा-उपचार की एक्युप्रेशर, सुजोक, चुम्बक, शिवाम्बु, सूर्य किरण एवं रंग, स्वर, योग, ध्यान जैसी अनेकों चिकित्सा पद्धतियों को, जो सबके लिये, सब समय, सब जगह उपलब्ध हों, अपने प्रचार-प्रसार एवं शोध हेतु सरकारी सहयोग कैसे मिले, जन-जन तक उनकी जानकारी कैसे पहुँचावें, स्वास्थ्य में रुचि रखने वाले प्रत्येक नागरिक के चिन्तन का विषय है?
अवैज्ञानिक पद्धतियों पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं?-
यदि ऐसी किसी अवैज्ञानिक पद्धत्ति से राष्ट्र में सार्वजनिक रूप से उपचार किया जा रहा हो, स्वयंसेवी संस्थायें अथवा व्यक्तिगत स्तर पर ऐसी पद्धतियों का प्रचार-प्रसार हो रहा हो तो उन पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाया जाता? उन पर अंकुश लगाने का दायित्व किनका? वैज्ञानिकता का आधार क्या? सिर्फ अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति सच्ची, अच्छी, प्रभावशाली हैं एवं अन्य पद्धतियों को हानिकारक, वैकल्पिक, अप्रभावशाली अथवा अनुपयोगी मानना, क्या यही वैज्ञानिक आधार है? जिन अधिकारियों को अन्य पद्धतियों के बारे में न तो सामान्य जानकारी हो और न जानने, समझने एवं विचार-विमर्श हेतु जिज्ञासा हो, उनसे उस विषय पर उचित प्रतिक्रिया कैसे प्राप्त हो सकती है? ऐसे अधिकारियों की उन चिकित्सा पद्धतियों पर सलाह कैसे न्यायसंगत हो सकती है? पूर्वाग्रह, अज्ञान, अविवेक, अरुचि, दवा निर्माताओं के दबाव के कारण अन्य चिकित्सा पद्धतियों के प्रति उपेक्षावृत्ति स्वास्थ्य मंत्रालय के संकुचित दृष्टिकोण को प्रदर्शित करती हैं।
वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति कौनसी?
स्वावलंबी या परावलम्बी, सहज अथवा दुर्लभ। सरल अथवा कठिन, सस्ती अथवा मंहगी। प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों पर आधारित प्राकृतिक या नित्य बदलते मापदण्डों वाली अप्राकृतिक। अहिंसक अथवा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा, निर्दयता, क्रूरता को बढ़ावा देने वाली। दुष्प्रभावों से रहित अथवा दुष्प्रभावों वाली। शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता बढ़ाने वाली या कम करने वाली। रोग का स्थायी उपचार करने वाली अथवा क्षणिक राहत पहुँचाने वाली। सारे शरीर को एक इकाई मानकर उपचार करने वाली अथवा शरीर का टुकड़ों-टुकड़ों के सिद्धान्त पर उपचार करने वाली। उपर्युक्त मापदण्ड के आधार पर हम स्वयं निर्णय करें कि कौनसी चिकित्सा मौलिक है और कौनसी वैकल्पिक?
क्या थोथे नारों से स्वास्थ्य लाभ मिल सकता हैं?
डाॅक्टरों एवं अस्पतालों की संख्या निरन्तर बढ़ने के बावजूद रोगियों की संख्या में बढ़ोतरी क्यों हो रही है? चिकनगुनिया, एन्थेक्रस, कैंसर, एड्स, बर्ड फ्लू , डेंगूँ जैसे नये-नये रोग क्यों पनप रहे हैं? विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सन् 2000 तक पूर्व में सबको अच्छा स्वास्थ्य प्रदान करने की घोषणा हुई, उसमें सफलता क्यों नहीं मिली? आगे सम्पूर्ण स्वास्थ्य के लक्ष्य की प्राप्ति कब और कैसे होगी? इसके लिये स्वास्थ्य मंत्रालय के पास क्या ठोस योजनाएँ तथा समयबद्ध कार्यक्रम है? मात्र थोथे नारों से जनता को अच्छा स्वास्थ्य नहीं दिलाया जा सकता। आधुनिक विकसित स्वास्थ्य विज्ञान नाखून, बाल, आँसू, पसीने जैसे सामान्य पदार्थों का निर्माण क्यों नहीं कर पा रहा है?
रोग होने के मुख्य कारण-
उपचार से पूर्व रोग का सही निदान आवश्यक होता है। रोगों के कारणों को मोटे रूप से तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। 1. आधि (मानसिक), 2. व्याधि (शारीरिक), 3. उपाधि (आत्मिक अर्थात् कर्मजन्य) परन्तु अपने आपको वैज्ञानिक बतलाने वाली चिकित्सा पद्धतियों के पास क्या मानसिक तथा आध्यात्मिक कारणों को जानने, समझने, नापने का कोई उपाय है? क्या निदान और उपचार हेतु ऐसे कारणों को महत्व देते हैं? मानव केवल शरीर का ढांचा मात्र ही नहीं है। उसके साथ मन, चेतना और आत्मा भी जुड़ी हुई है, जिसका ज्ञान जानवरों के विच्छेदन से नहीं, अपितु साधना की अनुभूतियों से प्राप्त होता है। अतः जब तक डाॅक्टर संत प्रकृति का साधक नहीं होगा ऐसे रोगों का सही निदान कैसे कर सकेगा? जब तक व्यक्ति मानसिक, शारीरिक तथा आत्मिक दृष्टि से स्वस्थ नहीं होता, संतुलित नहीं होता वह अपने आपको कैसे स्वस्थ रख सकता है? रोग का कारण कुछ भी हो, उसकी अभिव्यक्ति तो शरीर के माध्यम से ही होती है। क्या आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों के पास मन को एकाग्र करने अथवा उसे संतुलित रखने की कोई दवा अथवा इंजेक्शन है ? जिसके असंतुलन से अधिकांश रोगों का जन्म होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति ने अभी तक मात्र 15 से 20 प्रतिशत रोगों के कारणों के बारे में सोचा है और उपचार का आंशिक प्रयास किया है। जिस पर प्रत्येक स्वास्थ्य प्रेमी, बुद्धिमान, चिन्तनशील नागरिकों का चिन्तन आवश्यक है।
क्या शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम करना उचित है?
अंग्रेजी दवाइयों के सेवन से शरीर की रोग प्रतिकारात्मक शक्ति क्षीण होने लगती है। स्वविवेक एवं चिन्तन मंद एवं मनोबल घटने लगता है, धैर्य तथा सहनशीलता घटती है। वास्तव में अंग्रेजी दवा लेने वाले, दवा न लेने वालों से कहीं ज्यादा बीमार होते हैं। यह इस तथ्य को स्वीकारने को मजबूर करता है कि अंग्रेजी दवाओं का दुष्प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर पड़ता है तथा उनका अनावश्यक उपयोग सभी असाध्य, नये-नये रोगों का मूल कारण होता है। फिर चाहे कैंसर का रोग हो या एड्स का रोग। जो रोग बढ़ाने वाले कारणों को बढ़ावा दे रहे हैं उन्हीं को प्रोत्साहन देकर रोग मिटाने का प्रयास हो रहा है। फूटे हुए घड़े को सात समुद्र भी भरा हुआ नहीं रख सकते। अंग्रेजी दवा लेकर सदैव अपने आपको स्वस्थ रखने की कल्पना भी कचरे को दबाकर अथवा छिपाकर स्वच्छता दिखलाने जैसा ही भ्रम है। आश्चर्य तो इस बात का है कि ऐसी पद्धतियों से सम्बन्धित व्यक्तियों से ही नवीन रोगों की उत्पति के कारणों का स्पष्टीकरण मांगा जा रहा है। जो कितना अप्रासंगिक है, मानो गुनहगारों से ही उनके गुनाहों की रिपोर्ट मांगी जा रही है। ऐसी रिपोर्ट कैसे सत्य, विश्वसनीय एवं अनुकरणीय हो सकती है, स्वास्थ्य के प्रति सजग लोगों के लिये चिन्ता एवं चिन्तन का विषय है।
टीकाकरण अभियान कितना उचित?
अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति के अनुसार रोग का मुख्य कारण शरीर में कीटाणुओं की उपस्थिति से होता है। यदि इसको पूर्ण सत्य मान लिया जाये तो गांव और शहर में रोजाना गन्दगी की सफाई करने वाले हरिजन तथा गंदी बस्तियों में रहने वाले हमारे गरीब भाई सदैव रोगग्रस्त ही होने चाहिये। दूसरी तरफ स्वच्छ वातावरण में रहने वाले क्या कभी रोगग्रस्त नहीं होते? वास्तव में आज स्वास्थ्य मंत्रालय को रोग दूर कर व्यक्ति को स्वस्थ करने की उतनी चिन्ता नहीं है जितनी रोगों के नामों की लम्बी-लम्बी व्याख्या कर उन्हें दबा कर वाहवाही लूटने की चिन्ता है। भले ही उसके दूरगामी हानिकारक प्रभाव पड़ते हों। नये-नये रोगों की उत्पति होती हों। क्या हम अंग्रेजी दवाओं से पड़ने वाले दुष्प्रभावों से परिचित हैं ? स्वतंत्र भारत में आज भी हम स्वास्थ्य के प्रति कितने पराधीन होते जा रहे हैं? हमारा चिन्तन एवं विवेक सुषुप्त हो रहा है? जबरदस्ती टीकाकरण अभियान के पीछे हमारा सोच कितना सही है, शोध का विषय है? जिन बच्चों में पोलियों अथवा अन्य किसी रोग के प्रारम्भिक लक्षण भी न हों, बिना निदान किये अन्धानुकरण कर टीके लगाना कितनी अदूरदर्शिता का द्योतक है? इस सम्बन्ध में जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनकी उपेक्षा कर अनायास भावी पीढ़ी को रोगग्रस्त, अशक्त, कमजोर, डरपोक बनाने का क्यों षड़यन्त्र किया जा रहा है? स्वास्थ्य मंत्रालय का दायित्व है कि अन्य देशों की भांति दवाओं से पड़ने वाले दुष्प्रभावों की क्षतिपूर्ति दिलाने का कानून बनाये ताकि रोगी डाॅक्टरों की प्रयोगशाला न बन सके। जहाँ साधन, साध्य एवं सामग्री तीनों की पवित्रता संदिग्ध हों तो ऐसे तरीकों से शरीर को लम्बे समय तक कैसे स्वस्थ रखा जा सकता है? आश्चर्य तो इस बात का है कि विश्वव्यापी स्वयंसेवी संस्थायें ऐसे अन्धानुकरण में सहयोग कर सेवा के नाम पर अपने समय, श्रम एवं साधनों का अपव्यय कर रही हैं।
चिकित्सा का वैज्ञानिक आधार क्या?
विज्ञान सत्य को स्वीकारता है। इसमें किसको आपत्ति हो सकती है? आपत्ति और आशंकाएँ तो तब उठती है जब मायावी तर्कों, परिभाषाओं द्वारा झूठ को सत्य बतलाने का असफल प्रयास किया जाता है, दुष्प्रभावों को छिपाया जाता है। सत्य तो सनातन होता है। उसको कुतर्कों, भीड़, जन-समर्थन के अन्धानुकरण से कोई लेना-देना नहीं होता है। परन्तु आज के विज्ञान का सारा सोच अनुभूति से हट सत्य को पर्दे पर दिखाना एवं एकपक्षीय आंकड़ों मात्र तक सीमित रह गया है, उसका मानना है कि जिसको दिखाया जा सके, मापा जा सके तथा आवश्यकता पड़ने पर पुनः-पुनः दोहराया जा सके वही सत्य है। उससे परे जो सत्य है, वहाँ तक उसकी अभी तक पहुँच नहीं हो पा रही है। उसको स्वीकारने में हिचकिचा रहा है। ऐसे सोच को ही वैज्ञानिक मान लेना तर्कसंगत नहीं लगता। मात्र शल्य चिकित्सा की सफलताओं के कारण अन्य चिकित्सा पद्धतियों को संदेहास्पद दृष्टि से देखना उचित नहीं। हमारे शरीर में सभी रोगों को स्वस्थ करने की क्षमता होती है। जो शरीर हृदय, गुर्दें, फेफड़े, लीवर, मस्तिष्क जैसे अंगों का निर्माण एवं विकास स्वयं करता है तो क्या वह शरीर उन्हें ठीक नहीं कर सकता? शरीर में जो गांठ बनती है वह अन्य चिकित्सा-पद्धतियों द्वारा घुल सकती है, बिखर सकती है। आज 50 प्रतिशत से अधिक शल्य चिकित्साओं के प्रभावशाली विकल्प उपलब्ध हैं। परन्तु उनके उपयोग न होने के लिये हमारा अज्ञान ही दोषी है। वास्तव में अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति का आधार वैज्ञानिक कम, परन्तु विज्ञापन ज्यादा लगता है।
क्या शरीर के पेथालोजिकल टेस्ट सदैव समान होते हैं?
व्यक्ति की संवेदनाओं, आवेगों, तनाव आदि से अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ प्रभावित होती हैं। जिससे शरीर की सभी क्रियाएँ एवं प्रतिक्रियाओं में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। इसी कारण शरीर का रासायनिक स्वरूप (पैथालोजी) कभी स्थिर नहीं रहता, प्रतिक्षण बदलता रहता है। यही कारण है कि किसी भी व्यक्ति के अलग-अलग समय पर कराये गये मल-मूत्र, रक्त, इ.सी.जी. आदि पेथालोजीकल टेस्ट रिपोर्ट सदैव एक जैसी नहीं होती। अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति में निदान का यही मूल आधार होता है। जब आधार ही बदलता रहे तो उन पर आधारित उपचार कैसे सही हो सकता है? अपने आपको वैज्ञानिक मानने वालों को इसे स्पष्ट करना चाहिये?
क्या शरीर में यिन-यांग सिद्धान्त प्रभावी होता है?
सारा संसार एक दूसरे के सहयोग से चलता है, सभी प्रवृत्तियाँ किसी न किसी की पूरक होती है। जैसे- दिन-रात, अंधेरा-उजाला, पति-पत्नी, गर्म-ठण्डा, पोजीटिव-नेगेटिव। वैसे ही शरीर में कोई भी अंग पूर्णतया स्वतंत्र नहीं होता। प्रत्येक अंग का भी पूरक अथवा सहयोगी अंग होता है और कभी-कभी उनमें जब असन्तुलन होता है तब रोग की स्थिति बनती है। परन्तु अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति में यह सिद्धान्त ही गौण है। फलतः हृदय का उपचार हृदय से, फेफड़े का उपचार फेफड़े से, डायबिटिज का उपचार पेनक्रियाज के माध्यम से ही किया जाता है। आँख, कान, नाक सभी अंगों के विशेषज्ञ अलग-अलग होते हैं। अतः वे इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि रोग का कारण कभी-कभी उसका पूरक अंग भी हो सकता है। जैसे यदि किसी व्यक्ति की पत्नी बहुत ज्यादा बीमार हो और उसके कारण पति उदास एवं तनावग्रस्त रहता है। यदि उस पति का तनाव मिटाना है तो पत्नी को रोगमुक्त करना होगा। पत्नी को स्वस्थ किये बिना पति तनावमुक्त नहीं हो सकता। अन्यथा उस बुढ़िया वाली कथा चरितार्थ हो जावेगी, जिसकी सुई तो घर में गुम गई, परन्तु घर में अन्धेरा होने से वह बाहर उजाले में ढूंढ रही थी। उसी प्रकार कभी-कभी रोग का कारण कुछ और निदान तथा उपचार कुछ और करने से समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? परिणामस्वरूप हृदय, दमा, डायबिटीज जैसे रोगों के बहुत से रोगी जिन्हें अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति असाध्य मानती है, वे यिन-यांग सिद्धान्त से उपचार करने पर शीघ्र चन्द दिनों में ही ठीक किये जा सकते हैं।
स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ क्यों प्रभावशाली-
बिना दवा उपचार की स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ सहज, सरल, सस्ती, दुष्प्रभावों से रहित, शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता को बढ़ाने वाली होती हैं, जो व्यक्ति का स्वविवेक जागृत कर, स्वयं की क्षमताओं के सदुपयोग की प्रेरणा देती है। वे हिंसा पर नहीं अहिंसा पर, विषमता पर नहीं समता पर, साधनों पर नहीं साधना पर, दूसरों पर नहीं स्वयं पर आधारित होती हैं। जो शरीर के साथ-साथ मन एवं आत्मा के विकारों को दूर करने में सक्षम होती हैं। वे प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों पर आधारित होने के कारण अधिक प्रभावशाली, वैज्ञानिक, मौलिक एवं निर्दोष होती हैं।
भ्रामक विज्ञापनों पर आधारित एलौपेथिक चिकित्सा-
आज उपचार भी एक फैशन का रूप लेता जा रहा है और उसका कारण है डाॅक्टरों के झूठे आश्वासन, लुभावने विज्ञापन, रोगी में धैर्य, सहनशक्ति, स्वचिंतन व कर्म सिद्धान्त की जानकारी का अभाव। साधारण से रोग में बड़े से बड़े डाॅक्टर के पास जाकर निदान एवं परीक्षण कराना हम अपनी आन-बान व शान समझते हैं परन्तु डाॅक्टर से निदान एवं उपचार की सत्यता एवं प्रभाव के बारे में स्पष्टीकरण तक नहीं लेते। हमारा अपने शरीर की क्षमता पर विश्वास घटता जा रहा है। शरीर में इतनी क्षमता है कि वह छोटी-मोटी व्याधियों को स्वयं दूर कर लेता है। परन्तु हम धैर्य व सहनशीलता नहीं रख पाते। यही कारण हैं कि रोग होते ही हम अपने स्वजनों व मित्रों को अस्पताल ले जाना अपना कत्र्तव्य समझते हैं। जो ऐसा नहीं करते उन्हें मूर्ख, कंजूस तथा यहाँ तक कह देते है कि वे जान-बूझकर अपने परिजनों को मारना चाहते हैं।
स्वास्थ्य मंत्रालय की नीतियों में बदलाव आवश्यक-
आज जितना प्रयास एवं खर्च रोगों के उपचार हेतु किया जाता है उतना रोगों के वास्तविक कारणों को दूर करने के लिये, शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता बढ़ाने हेतु नहीं किया जाता। यदि प्राकृतिक जीवन जीएँ, अपना खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार, सात्विक और संयमित रखें, शुद्ध हवा एवं धूप का सेवन करें, क्षमता के अनुरूप परिश्रम करें, तो रोग होने की संभावना ही कम हो जाती है। परन्तु इसके लिये हमें दृढ़तापूर्वक रोग की प्रारम्भिक अवस्था में अंग्रेजी दवाइयों का मोह छोड़ना होगा। हम चाहते तो हैं रोगों से मुक्त होना, पर एक रोग तो ठीक होता नहीं और दवाइयों के दुष्प्रभाव से दूसरे रोग भीतर ही भीतर पनपने लगते हैं और रोगों की शृंखला बढ़ती जाती है। दवाओं का दुष्प्रभाव शराब के नशे की भाँति होता है।
अंत में हमारा स्वास्थ्य मंत्रालय एवं उनसे संबंधित नीति-निर्माताओं से विनम्र अनुरोध है कि वे अपने दृष्टिकोण में व्यापकता रखें। आज योगाचार्य रामदेव जी एवं ध्यान के क्षेत्र में कार्यरत संस्थायें तथा अन्य बिना दवा उपचार की एक्यूप्रेशर, चुम्बकीय, सुजोक, शिवाम्बु जैसी अनेक प्रभावशाली चिकित्सा पद्धतियाँ ऐलौपेथिक के प्रभावी विकल्प के रूप में प्रमाणित हो रही हैं। स्वास्थ्य के लिये हानिकारक दवाइयों, खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार संबंधी मायावी विज्ञापन के प्रसारण एवं काम-विकार बढ़ाने वाली व जासूसी फिल्मों पर रोक लगायें तथा उपचार के नाम पर विदेशों का अन्धानुकरण छोड़ भारत के लिये हितकारी, जनसाधारण के लिये उपयोगी, सरल-सुलभ, दुष्प्रभावों से रहित, प्रभावशाली, स्वावलम्बी, बिना दवा उपचार की चिकित्सा पद्धतियों पर शोध करावें। उनके प्रशिक्षण की व्यवस्था करें तथा ऐसी चिकित्सा व्यवस्था जनसाधारण को उपलब्ध करावें। स्वास्थ्य संबंधी नीतियाँ बनाते समय ऐसी चिकित्सा पद्धतियों के विशेषज्ञों से विचार-विमर्श करें तथा स्वास्थ्य संबंधी बजट में अन्य चिकित्सा पद्धतियों की भी उचित भागीदारी रखें। भारत में चिकित्सा पद्धति का आधार हमारी संस्कृति के अनुरूप स्वावलम्बी, अहिंसात्मक, आध्यात्मिक होना चाहिये ताकि हम आधि, व्याधि तथा उपाधि से मुक्त हो पूर्ण समाधि प्राप्त कर सकें। अर्थात् चिकित्सा का आधार समग्र चिकित्सा पद्धतियाँ हों न कि हम एक मात्र एलौपेथिक चिकित्सा पर आश्रित बनें, तब ही भारत की गरीब जनता तक स्वास्थ्य की सुविधायें उपलब्ध करा सकेंगे।