उचित समय पर किया गया कार्य अधिक लाभदायक होता है-
सूर्य प्रतिदिन प्रातःकाल में उदय होकर, सायंकाल को ही क्यों अस्त होता है? निद्रा का समय रात्रि में ही क्यों उपयुक्त होता हैं? प्रातःकाल ही प्रायः अधिकांश व्यक्ति मल-त्याग क्यों करते हैं? भ्रमण एवं श्वसन सम्बन्धी व्यायामों अथवा प्राणायाम प्रातः ही क्यों विशेष लाभप्रद होता है? रात्रि भोजन का क्यों निषेध किया गया हैं? समुद्र में ज्वार रोजाना क्यों नहीं आते? विशेष दिवसों पर ही क्यों आते हैं? स्वास्थ्य के अनुकूल खानपान और रहन-सहन में परिवर्तन क्यों आवश्यक होते हैं? पुराने लोग स्वास्थ्यवर्धक आंवलों को विधिपूर्वक पूर्ण परहेज के साथ सेवन करने के लिये चैत्र और आसोज मास का ही क्यों परामर्श देते हैं? हमारी दिनचर्या एवं रात्रिचर्या के पीछे क्या दृष्टिकोण हैं? क्या उपरोक्त सारी बातों का कोई वैज्ञानिक सोच या आधार है अथवा हमारी सुविधा या अन्धःनुकरण? कोई बीज कितना ही अच्छा क्यों न हो, उसे अच्छी उपजाऊ, जमीन पर बोया जावे, उचित हवा, पानी, धूप मिलने के बावजूद भी उचित समय पर न बोने से वह नहीं उगता। ठीक उसी प्रकार भोजन, पानी, हवा, निद्रा आदि का बराबर ख्याल रखने के बावजूद उचित समय पर सेवन न करने से वे अपेक्षाकृत लाभदायक नहीं होते। राम का नाम सत्य है परन्तु शुभ प्रंसगों पर भी राम नाम सत्य है कहना अप्रासंगिक समझा जाता है। अतः हमारी दिनचर्या का चयन इस प्रकार करना चाहिये कि शरीर के अंगों की क्षमताओं का अधिकतम उपयोग हो। प्रायः चिकित्सा पद्वतियाँ इस तथ्य की उपेक्षा कर रही है। इसी कारण उपचार प्रभावशाली नहीं हो रहे हैं तथा उपचार के कभी-कभी दुष्प्रभाव स्पष्ट देखे जा सकते हैं।
क्या शरीर के सभी अंग 24 घण्टे समान रूप से सक्रिय होते हैं?
शरीर के सभी अंगों में प्राण ऊर्जा का प्रवाह वैसे तो 24 घंटें होता ही है, परन्तु सभी समय एक-सा नहीं होता। प्रायः प्रत्येक अंग कुछ निश्चित समय के लिए अपेक्षाकृत सबसे कम सक्रिय होते हैं। इसी कारण कोई भी रोगी 24 घंटे एक जैसी स्थिति में नही रहता। अंगों में प्राण ऊर्जा के प्रवाह का संतुलन ही स्वास्थ्य का सूचक होता है। यदि कोई रोग किसी अंग की असक्रियता से होता है तो जिस समय उस अंग में प्रकृति से सर्वाधिक प्राण ऊर्जा का प्रवाह होता है तब रोगी को अपेक्षाकृत आंशिक राहत का अनुभव होता है। उसके विपरीत जब रोग उस अंग की अधिक सक्रियता से होता है तो जब उस अंग में प्राण ऊर्जा का प्रवाह निम्नतम होता है, तो रोगी को अधिक राहत का अनुभव होता है। कभी-कभी हम अनुभव करते हैं कि रोगी को निश्चित समय होते ही रोग के लक्षण प्रकट होने लग जाते हैं। ऐसा क्यों होता हैं?
शरीर के प्रमुख अंगों में प्रकृति से अधिकतम एवं निम्नतम ऊर्जा प्रवाह का समय
(सूर्योदय प्रातः 6 बजे एवं सूर्यास्त सायंकाल 6 बजे पर आधारित)
क्र. सं.
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अंगों का नाम
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अंग में ऊर्जा के सर्वाधिक
प्रवाह का समय
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प्राण ऊर्जा के निम्नतम
प्रवाह का समय
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1.
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फेंफड़ें (LU)
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प्रातः 3 से 5 बजे तक
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दोपहर 3 से 5 बजे तक
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2.
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बड़ी आंत (LI)
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प्रातः 5 से 7 बजे तक
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सांयकाल 5 से 7 बजे तक
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3.
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आमाशय (ST)
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प्रातः 7 से 9 बजे तक
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सांयकाल 7 से 9 बजे तक
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4.
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तिल्ली(SP)/पेन्क्रियाज
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प्रातः 9 से 11 बजे तक
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रात्रि 9 से 11 बजे तक
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5.
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हृदय (H)
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प्रातः 11 से 1 बजे तक
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रात्रि 11 से 1 बजे तक
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6.
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छोटी आंत (SI)
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दोपहर 1 से 3 बजे तक
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रात्रि 1 से 3 बजे तक
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7.
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मूत्राशय (UB)
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दोपहर 3 से 5 बजे तक
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रात्रि 3 से 5 बजे तक
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8.
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गुर्दे (K)
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सांयकाल 5 से 7 बजे तक
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प्रातः 5 से 7 बजे तक
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9.
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पेरीकार्डियन (PC)
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रात्रि 7 से 9 बजे तक
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प्रातः 7 से 9 बजे तक
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10.
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त्रिअग्री (TW)
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रात्रि 9 से 11 बजे तक
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दिन में 9 से 11 बजे तक
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11.
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पित्ताशय (GB)
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रात्रि 11 से 1 बजे तक
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दोपहर 11 से 1 बजे तक
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12.
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लीवर (Liver)
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रात्रि 1 से 3 बजे तक
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दोपहर 1 से 3 बजे तक
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वैज्ञानिक शोधों का यह निष्कर्ष है कि शरीर के सभी अंगों में सभी समय एक समान प्राण-ऊर्जा का प्रवाह नहीं होता। यदि दिन-रात को बराबर 12-12 घण्टे का आधार माने तो लगभग प्रत्येक प्रमुख अंगों में दो-दो घण्टे सर्वाधिक, तो उसके ठीक विपरीत अर्थात् 12 घण्टे पश्चात् निम्नतम प्राण उर्जा का प्रवाह उस अंग में होता है। इसी कारण एक ही लक्षण वाली बीमारियों के अलग-अलग समय में प्रकट होने के कारण अलग-अलग होते हैं। जैसे किसी व्यक्ति को प्रातःकाल सिर दर्द होता है अथवा चक्कर आता है और किसी अन्य रोगी को दोपहर अथवा रात्रि में सिर दर्द अथवा चक्कर आता हो तो दोनों के कारण अलग-अलग होते हैं। रोग का कारण उससे सम्बन्धित अंग में चेतना के प्रवाह का उस समय ज्यादा अथवा कम होना होता है।
शारीरिक क्रियाओं का प्रकृति से तालमेल आवश्यक:-
मनुष्य की दिनचर्या का प्रारम्भ निद्रा त्याग से और समापन निद्रा आने के साथ होता है। स्वस्थ रहने की कामना रखने वालों को शरीर में कौनसा अंग और क्रियाएँ कब विशेष सक्रिय रहती है इस बात की जानकारी आवश्यक होती है और उसके अनुरूप आचरण करना चाहिये। हमें चिन्तन करना होगा कि कोई भी शारीरिक अथवा मानसिक क्रिया और कार्य क्यों करें? कितना करें? कहाँ करें? कैसे करें? इन सबके साथ यह भी आवश्यक है कि वह क्रिया कौनसे समय करें? जैसे भोजन कब करें? निद्रा कब ले? पानी कब पीये? व्यायाम कब करें? इत्यादि। प्रकृति के अनुरूप दिनचर्या का निर्धारण और संचालन करने से शारीरिक क्षमताओं का अधिकाधिक उपयोग होता है। हम रोगों से सहज ही बच जाते हैं और यदि अज्ञानतावश रोग हो भी जावे तो पुनः शीघ्र स्वस्थ बन सकते हैं। दुःख इस बात का है कि आज अधिकांश व्यक्तियों की दिनचर्या प्रकृति के अनुरुप नहीं हैं और न वे इसके प्रभाव को समझने का भी प्रयास करते हैं। अज्ञान, अविवेक, पूर्वाग्रहों, कुतर्कों, मायावी विज्ञापनों, सरकारी और सामाजिक व्यवस्थाओं के अन्धाःनुकरण के कारण प्रकृति के साथ जन-साधारण का सही सामन्जस्य नहीं होता है। परिणामस्वरूप भोजन के समय नाश्ता और निद्रा के समय जागृत रहने जैसी आदतों को संजोये हुए है। हम उनके दुष्प्रभावों से अपरिचित हैं।
हम यह भूल जाते हैं कि जिसमें प्रकृति के विरुद्ध चलने की ताकत न हों वह कम से कम उसका सहयोग तो ले। तूफान का सामना करने की क्षमता नहीं हो तो हवा की दिशा में चले ताकि कम से कम कठिनाई का अनुभव हो। दूसरी बात जिस समय जो अंग सर्वाधिक सक्रिय हो, उस समय दूसरे अंगों के कार्य और क्रियाएँ करेंगे तो वे अंग प्रकृति से प्राप्त अपने हिस्से की विशेष प्राण ऊर्जा से वंचित रह जायेंगे। जैसे नगर निगम से पानी के वितरण के समय जो पानी का संग्रह नहीं करेगा, उसको बाद में पानी की आवश्यकता पड़ने पर पछताना पड़ेगा।
निद्रा कब त्यागें:-
प्रातः 3 बजे से 5 बजें फेंफड़ों में प्राण ऊर्जा का प्रवाह सर्वाधिक होता है। इसी कारण प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में उठ कर खुली हवा में घूमने वाले, शुद्ध वायु में प्राणायाम तथा श्वसन का व्यायाम करने वालों के फेंफड़े सशक्त होते हैं। प्रातःकाल 3 बजे से 5 बजे पीयूष और पीनियल ग्रन्थियों से सोमरस निकलता है, जो शरीर की प्रतिकारात्मक शक्ति को बढ़ाता है तथा शरीर के व्यवस्थित विकास हेतु जिसकी आवश्यकता होती है। इस समय निद्रा लेने पर शारीरिक स्थिरता के कारण सोमरस की धारा गले के नीचे प्रवाहित नहीं हो पाती। इस रस के कारण उस समय मस्तिष्क की स्मरण शक्ति जितनी अच्छी होती है अन्य समय नहीं होती। ब्रह्म मुहूर्त में उठने वाले छात्र अधिक बुद्धिमान, स्वस्थ, सजग एवं क्रियाशील होते हैं। उनमें आलस्य अपेक्षाकृत कम होता है। प्रातः 5 से 7 के बीच का समय फेंफड़ों के सहयोगी अंग बड़ी आंत में चेतना का विशेष प्रवाह होने से यह अंग अधिक क्रियाशील होता है। इसी कारण मलत्याग के लिए यह सर्वोतम समय होता है। जो व्यक्ति उस समय मलत्याग नहीं करते हैं उनके कब्जी रहने का, एक कारण यह भी हो सकता है। इसलिए जो देर तक सोये रहते हैं उनका पेट प्रायः खराब रहता है।
भोजन कब करें?-
प्रातः 7 बजे से 9 बजे तक आमाशय में प्रकृति से प्राण ऊर्जा का सर्वाधिक प्रवाह होने तथा बड़ी आंत की सफाई हो जाने से इस समय पाचन आसानी से हो जाता है। जितना अच्छा भोजन का पाचन प्रातःकाल में होता है उतना अन्य समय में नहीं होता। प्रातः व्यक्ति अपेक्षाकृत शान्त, तनाव-मुक्त, षड़यंत्रों तथा उलझनों से मुक्त रहता है। अतः भोजन के समय में भी नियमितता रखी जा सकती है। ऐसे समय किया गया भोजन अधिक सुपाच्य होता है और अमृत का कार्य करता है। विशेष रूप से मधुमेह का रोग जिसे असाध्य माना जाता है, प्रकृति के समयानुकूल भोजन कर ठीक किया जा सकता है।
दूसरी तरफ जब हमें स्वाभाविक अच्छी भूख लगे तब ही भोजन करना चाहिए। भूख का सम्बन्ध हमारी आदत पर निर्भर होता है। जैसी हम आदत डालते हैं, उस समय भूख लगने लग जाती है। अतः हमें भोजन की ऐसी आदत डालनी चाहिए जिससे कि जब आमाशय अधिक सक्रिय हो, उस समय हमें तेज भूख लगे। दूसरी बात जब तेज भूख लगे तो कुछ खाकर आमाशय की पूर्ण क्षमता का अपव्यय नहीं करना चाहिये। नाश्ता अधूरा आहार होता है और जब हम आंशिक आहार का पाचन आमाशय की सर्वाधिक क्षमता के समय करते हैं तो जब हमारा मुख्य भोजन होता है, तब आमाशय की पाचन क्षमता इतनी अधिक न होने से उसे अधिक श्रम करना पड़ता है। यदि ऐसा किया गया तो मुख्य भोजन के समय आमाशय भी पाचन के प्रति उदासीन हो जाए तो आश्चर्य नहीं। अतः जब आमाशय और पेन्क्रियाज सबसे अधिक सक्रिय हों अर्थात् प्रातः 9 बजे के लगभग अवश्य भोजन कर लेना चाहिये तथा सायंकाल 7 बजे से 11 बजे के बीच भोजन नहीं करना चाहिये, क्योंकि उस समय प्रकृति से आमाशय और पेन्क्रियाज को निम्नतम प्राण ऊर्जा मिलने से पाचन क्रिया मंद पड़ जाती है। इसी कारण सूर्यास्त के पश्चात् किया गया भोजन स्वास्थ्य के लिए लाभदायक नहीं होता।
निद्रा कब लें?-
रात्रि 11 बजे से 3 बजे तक अग्नि तत्त्व से सम्बन्धित हृदय और छोटी आंत में चेतना का प्रवाह निम्नतम होता है। अर्थात् उस समय संवेदनायें अपेक्षाकृत कम सक्रिय होती है। अतः निद्रा के लिए सबसे अच्छा समय होता है। रात्रि 11 बजे से 3 बजे लीवर और गाल ब्लेडर में प्राण ऊर्जा का प्रवाह अपेक्षाकृत ज्यादा होता है। लीवर, गाल ब्लेडर शरीर में सबसे उत्तेजित अंग होते हैं। इसी कारण जिनके ये अंग खराब हो जाते हैं उनका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। बात-बात में क्रोध आने लगता है। इसके विपरीत जिनको क्रोध ज्यादा आता है, स्वभाव चिड़चिड़ा हो उसके ये अंग जल्दी रोगग्रस्त हो सकते हैं। अतः स्वस्थ रहने की कामना रखने वालों को किसी भी हालात में 11 बजे तक गहरी निद्रा में चलें जाना चाहिए। अतः जो लोग देर रात जागृत रहते हैं उनका लीवर खराब रहने से स्वभाव अपेक्षाकृत चिड़चिड़ा, जिद्दी हो जाता है।
प्रकृति के कानून सनातन:-
उपरोक्त सत्य हमारी वर्तमान धारणाओं एवं परिस्थितियों के अनुकूल हों अथवा नहीं, ये बातें हमें अच्छी लगे अथवा न लगे, प्रकृति के कानून मनुष्य की व्यक्तिगत अनुकूलताओं के आधार पर नहीं बदलते। बड़े-बड़े शहरों में जीवन आज प्रकृति के विपरीत हो रहा है। सूर्योदय एवं सूर्यास्त का समय उनकी दिनचर्या के अनुरूप नहीं होता। सनातन सत्य सभी के लिए, सभी काल में, सभी स्थानों पर एक जैसे ही रहते हैं। जानवर आज भी उनका बिना तर्क पालन करते हैं और उनको अपना जीवन चलाने के लिए दवाईयों अथवा डाँक्टरों की आवश्यकता नहीं रहती। परन्तु जो पशु मानव के सम्पर्क में आते हैं, उनके सान्निध्य में रहकर अपना नियमित आचरण बदल प्रकृति के विरुद्ध चलने लगते हैं, वे ही मानव की भांति रोग ग्रस्त बन रहे हैं। जो सनातन सत्य है, हमारे स्वास्थ्य के लिए जो लाभप्रद है, उसके अनुरूप अपनी प्राथमिकताओं का हमें चयन कर दिनचर्या का निर्धारण करना होगा अन्यथा रोग मुक्त रहने की कल्पना आग के पास बैठ ठण्डक प्राप्त करने के समान होगी। सरकार से अपेक्षा है कि रात्रि में 10 बजे बाद टी.वी. रेडियों का प्रसारण बंद करें। पाठशालाओं, कार्यालयों का समय, भोजनावकाश निश्चित करते समय प्रकृति के समय-चक्र का ख्याल रखा जावे। हम जितना प्रकृति से तालमेल रख अपनी दिनचर्या बनायेंगे, उतने स्वास्थ्य को सरलता से प्राप्त कर निरोगी जीवन जी सकेंगे। हमारे जीवन का प्रथम सुख निरोगी काया है। उसके अभाव में हमारी सारी भाग-दौड़ हमें सुखी न बना सकेगी।