क्या हम अपने कर्तव्यों के प्रति सजग हैं?
आज चारों तरफ तनाव, असन्तोष एवं अशान्ति का वातावरण है। चाहे गृहस्थ हो अथवा साधक, नौकर हो अथवा मालिक, कर्मचारी हो अथवा पदाधिकारी, जनता हो अथवा नेता, परिवार हो अथवा समाज, सामाजिक संस्थाएँ हो अथवा संगठन। हमारी दूसरों से अपेक्षाएँ बढ़ती जा रही हैं, परन्तु हम अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों के प्रति उदासीन होते जा रहे हैं। अधिकार सभी चाहते हैं, परन्तु उसके लिए सेवा, त्याग, तपस्या, समर्पण, निष्ठा व विश्वसनीयता का आचरण करना आवश्यक नहीं समझते। हम बिना परिश्रम कियें अथवा बहुत कम मेहनत करके सब कुछ अथवा अधिक से अधिक लाभ प्राप्त करना चाहते हैं, भले ही उसके लिए हमें प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रुप से अकरणीय अथवा नियम विरुद्ध गलत आचरण ही क्यों न करना पड़ें।
प्रायः सभी परिवारों में अभिभावक, सम्प्रदायों में आचार्य, राष्ट्र में नेता, कार्यालयों में पदाधिकारी, अनुशासन चाहते हैं, परन्तु उनमें से अधिकांश स्वयं निष्ठापूर्वक बिना पक्षपात सबके साथ सद्भाव से अपने कर्तव्यों का निर्वाह नहीं करते। आदेशों का पालन सभी चाहते हैं, परन्तु अपने आश्रितों का हृदय कैसे जीता जावें, उनकी कठिनाईयों दुःखों अथवा अशान्ति का निवारण कैसे किया जाये, इसके प्रति सजगता नहीं दिखाते। सास अपनी बहू से अपेक्षाएँ तो बहुत करती है, परन्तु उसको बेटी के समान स्नेह देना आवश्यक नहीं समझती। मालिक नौकर से अधिकाधिक कार्य तो लेना चाहते हैं, परन्तु उसकी निम्नतम आवश्यकताओं का ख्याल भी नहीं करते। गुरु शिष्य से सेवा व आज्ञा पालन की तो आशा करते हैं, परन्तु शिष्य को अपने लक्ष्य में बढ़ाने हेतु वांछित सहयोग नहीं करते, शिष्य की मनःस्थिति एवं क्रिया कलापों का सजगतापूर्वक ध्यान नहीं रखते, जिससे शिष्य साधना के पावन पथ से भटक जाता है। नेता अपने सुख और स्वार्थ का ही ध्यान रखें, प्राप्त अधिकारों का दुरुपयोग करें, परन्तु प्रजा की समस्याओं के प्रति उपेक्षा रखें तो हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि वे भी अपने कर्तव्यों का ईमानदारी पूर्वक पालन नहीं कर रहे हैं। इसी कारण आज अधिकांश पिता पुत्र से, गुरु शिष्य से, सास बहू से, अध्यापक विद्यार्थी से, मालिक नौकर से, पदाधिकारी कर्मचारी से, बहू सास से, शिष्य गुरु से, नौकर मालिक से प्रसन्न नहीं हैं, वे एक दूसरे पर आरोप लगा उसकी अभिव्यक्ति करते हैं। आपसी भेदभाव एवं विश्वास कम होता जा रहा है। बड़ों के प्रति श्रद्धा और आदर की भावना लुप्त होती जा रही है।
अपने से बड़ों (पूज्यों) की आज्ञा का पालन करना, सेवा शुश्रुषा करना, उनके अनुभवों का लाभ उठाने हेतु मार्ग दर्शन लेना, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एवं स्वाभिमान में बाधक समझा जा रहा है। भारतीय संस्कृति की पावन परम्परा में माता-पिता एवं गुरु को देवता माना गया है किन्तु इसके गूढ़ रहस्य को हम नहीं समझ पा रहे हैं। जो हम अपने प्रति चाहते हैं वैसा ही आचरण दूसरों के प्रति करना चाहिये। पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव हमारे मन-मस्तिष्क पर हावी होता जा रहा है। हमारी मान्यताएँ बदल रही हैं, चिंतन में आध्यात्मिकता गौण होती जा रही हैं एवं स्वछन्द मनोवृत्ति बढ़ रही है। पारिवारिक एवं सामाजिक बन्धन समयानुकूल भी नहीं लग रहे हैं। अपनी क्षणिक उपलब्धियों के फलस्वरूप लोक मर्यादाओं के विरुद्ध कार्य करते हुए तनिक भी संकोच नहीं हो रहा है। करणीय एवं अकरणीय के भेद का बोध समाप्त होता जा रहा है