1. मानव शरीर की विशेषताएँ
मानव जीवन की संरचना विश्व का एक अद्भूत आश्चर्य है। उसके रहस्य को दुनियाँ का बड़े से बड़ा डाॅक्टर और वैज्ञानिक पूर्ण रूप से समझने में अभी तक असमर्थ है। मस्तिष्क जैसा सुपर कम्प्यूटर, हृदय एवं गुर्दे जैसा रक्त शुद्धीकरण यंत्र, आमाशय, तिल्ली, लीवर जैसा रासायनिक कारखाना, आँख के समान कैमरा, कान के समान श्रवण यंत्र, जीभ के समान वाणी एवं स्वाद यंत्र, लिम्फ प्रणाली जैसी नगर निगम के समान सफाई व्यवस्था, नाड़ी तंत्र के समान मीलों लम्बी संचार व्यवस्था, अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के समान सन्तुलित, नियंत्रित, संयमित, न्यायिक, प्रशासनिक व्यवस्था, अवांछित तत्त्वों के विसर्जन की व्यवस्था, प्रकाश से भी तेज गति वाला मन इत्यादि अन्यत्र निर्मित उपकरणों अथवा अन्य चेतनाशील प्राणियों में एक साथ मिलना असम्भव होता है। शरीर के ऊपर त्वचा न होती तो कैसी स्थिति होती? क्या हमने कभी कल्पना की?
शरीर अपने लिए आवश्यक रक्त, मांस, मज्जा, हड्डियाँ, वीर्य आदि तत्त्वों का निर्माण चेतना के सहयोग से स्वयं करता है, जिसे अन्यत्र प्रयोगशालाओं में बनाना अभी तक सम्भव नहीं हुआ है। हमारे शरीर में पसीने द्वारा त्वचा के छिद्रों से पानी तो आसानी से बाहर आ सकता है, परन्तु पानी में त्वचा को रखने से, उन छिद्रों से पानी भीतर नहीं जा सकता। प्रत्येक शरीर का कुछ न कुछ वजन होता है, परन्तु चलते-फिरते शायद ही किसी को अपना वजन अनुभव होता है। हमारे शरीर का तापक्रम साधारणतयाः 98.4 डिग्री फारेहनाइट होता है, भले ही बाहर कितनी ही सर्दी अथवा गर्मी क्यों न हों। चाहे बर्फीले दक्षिणि अथवा उत्तरी ध्रुव पर जावें अथवा गर्मी में सहारा मरूस्थल जैसे गर्म स्थानों पर, शरीर का तापक्रम 98.4 डिग्री फारेहनाइट ही रहता है। हम देखते हैं कि जब कभी आँधी या तेज हवाएँ चलती हैं, तब हल्के पदार्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पर उड़कर चले जाते हैं। परन्तु हलन-चलन, उठने-बैठने एवं दौड़ने के बावजूद शरीर की कोई भी नाड़ी अपना स्थान नहीं छोड़ती। यदि हम शीर्षासन करें तो हृदय अपना स्थान नहीं छोड़ता। शरीर के सभी अंग, उपांग, नाड़ियाँ, हड्डियाँ, हलन-चलन के बावजूद कैसे अपने स्थान पर स्थिर रहते हैं? वास्तव में क्या यह आश्चर्य नहीं है?
2. मानव शरीर स्वयं में परिपूर्ण
मनुष्य का शरीर दुनियाँ की सर्वश्रेष्ठ स्वचलित, स्वनियन्त्रित स्व-अनुशासित मशीन होती है। अच्छे स्वचलित यंत्र में खतरा उपस्थित होने पर स्वतः उसको ठीक करने की व्यवस्था होती है। अतः हमारे शरीर में रोगों से बचने की सुरक्षा व्यवस्था तथा रोग होने पर पुनः स्वस्थ बनाने की व्यवस्था न हो, यह कैसे संभव हो सकता है? वास्तव में स्वास्थ्य के लिए हमारे शरीर में, प्रकृति में और आस-पास के वातावरण में समाधान भरे पड़े हैं। परन्तु उस व्यक्ति के लिए जो अपनी असीम क्षमताओं से अपरिचित हो, जिसका चिन्तन सम्यक् न हो, जो भविष्य में पड़ने वाले दुष्प्रभावों के प्रति बेखबर एवं भ्रान्त पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो, उसके लिए वे समाधान सामने होते हुए भी नजर नहीं आते हैं।
यदि हमारे शरीर के किसी भाग में कोई तीक्ष्ण वस्तु जैसे पिन, सूई, काँटा आदि चुभे तो सारे शरीर में छटपटाहट हो जाती है। आँखों में पानी आने लगता है, मुँह से चीख निकलने लगती है। शरीर की सारी इन्द्रियाँ और मन अपना कार्य रोककर क्षण भर के लिए उस स्थान पर केन्द्रित हो जाते हैं। उस समय न तो मधुर संगीत सुनना ही अच्छा लगता है और न मनभावन सुन्दर दृश्यों को देखना। न हँसी मजाक अच्छी लगती है और न अपने प्रियजन से बातचीत अथवा अच्छे से अच्छा खाना-पीना आदि। हमारा सारा प्रयास सबसे पहले उस चुभन को दूर करने में लग जाता है। जैसे ही चुभन दूर होती है, हम राहत अनुभव करते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि चाहे चुभन हो या आंखों में कोई बाह्य कचरा चला जाए अथवा भोजन करते समय गलती से भोजन का कोई अंश भोजन नली की बजाय श्वास नली में चला जाए तो शरीर तुरन्त प्रतिक्रिया कर उस समस्या का प्राथमिकता से निवारण करता है। जिस शरीर में इतना आपसी सहयोग, समन्वय, समर्पण, तालमेल एवं अनुशासन हो अर्थात् शरीर के किसी भाग में पीड़ा अथवा दुःख से सारा शरीर दुःखी हो तो क्या ऐसे शरीर में डाॅक्टरों द्वारा किसी भी नाम विशेष द्वारा पुकारे जाने वाले छोटे-बड़े रोग पनप सकते हैं?
3. शारीरिक क्षमताओं का दुरुपयोग अनुचित
यदि कोई लाखों रुपये के बदले किसी व्यक्ति के शरीर का कोई अंग, उपांग अथवा इन्द्रियाँ आदि लेना चाहे तो यथा-सम्भव कोई व्यक्ति नहीं देना चाहेगा। क्योंकि पैसों से उन अंगों को पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता। यहाँ तक लाखों रुपयों के बदले यदि आपको 15 मिनट श्वास रोकने का आग्रह करें तो क्या आप ऐसा करना चाहेंगे? नहीं! कदापि नहीं। मृत्यु के पश्चात् उस पैसे का क्या उपयोग? क्या हमने कभी सोचा कि ऐसी अमूल्य श्वास से जो हमें प्रतिक्षण निःशुल्क मिल रही है, उसे हम बराबर तो ले रहे हैं अथवा नहीं? इतने अमूल्य मानव जीवन का उपयोग हम कैसे कर रहे हैं? यदि कोई रुपयों के नोटों के बण्डल को चाय बनाने के लिए ईधन के लिए जलाएँ तो हम उसे मूर्ख अथवा पागल कहते हैं। तब इस अमूल्य मानव जीवन की क्षमताओं का दुरुपयोग अथवा अपव्यय करने वालों को क्या कहा जाए? बुद्धिमान व्यक्ति के लिए चिन्तन का प्रश्न है? कहीं हमारा आचरण अज्ञानवश अरबपति बाप के भिखारी पुत्र के समान स्वास्थ्य की दर-दर भीख मांगने जैसा तो नहीं है?
4. मानव जीवन अमूल्य
मानव जीवन अमूल्य है। वस्तु जितनी मूल्यवान होती है, उसका उपयोग एवं उसकी सुरक्षा उसके अनुरूप करने वाला ही सच्चा ज्ञानी होता है। हमें चिन्तन करना होगा कि मानव जीवन के रूप में प्राप्त हम अपनी ऐसी अमूल्य क्षमताओं का अप्राथमिक, अनावश्यक कार्यों में दुरुपयोग और अपव्यय तो नहीं कर रहे हैं? जब तक अपनी क्षमताओं का सही उपयोग नहीं होगा, दुःख और रोग के कारणों को नहीं समझा जायेगा, तब तक हमाराजीवन अमर्यादित, अनियन्त्रित, लक्ष्य-हीन, स्वच्छन्द, असंयमित होने से स्थायी स्वास्थ्य एवं समाधि को प्राप्त नहीं कर सकता।
5. स्वस्थ जीवन के लिए स्वयं की क्षमताओं का सदुपयोग आवश्यक
प्रत्येक व्यक्ति जीवन पर्यन्त स्वस्थ एवं सुखी रहना चाहता है। स्वस्थ रहना आत्मा का स्वभाव है। कोई भी रोगी बनना नहीं चाहता। परन्तु चाहने मात्र से तो स्वास्थ्य, शान्ति और समाधि नहीं मिल सकती।प्रत्येक व्यक्ति जीवन पर्यन्त स्वस्थ एवं सुखी रहना चाहता है। स्वस्थ रहना आत्मा का स्वभाव है। कोई भी रोगी बनना नहीं चाहता। परन्तु चाहने मात्र से तो स्वास्थ्य, शान्ति और समाधि नहीं मिल सकती।
सुखी जीवन के लिए सिर्फ शरीर का होना ही काफी नहीं होता, अपितु शरीर का स्वस्थ, नीरोग और ऊर्जायुक्त होना भी आवश्यक है। अनेक व्यक्ति बाह्य रूप से बलिष्ठ, पहलवान जैसे दिखने के बावजूद कभी-कभी असाध्य रोगों से पीड़ित पाए जाते हैं, जबकि इसके विपरीत कभी-कभी बाह्यदृष्टि से दुबले-पतले दिखने वाले कुछ व्यक्ति मोटे-ताजे दिखने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा ज्यादा मनोबली, आत्मबली और स्वस्थ हो सकते हैं। अतः स्वस्थ रहने की कामना रखने वालों को अपनी जीवनचर्या का निर्वाह करते समय अपनी क्षमताओं का सजगता, स्वविवेक, संयम और संतुलन के साथ सम्यक् पालन करना चाहिए।
6. मानव जीवन का उद्देश्य क्या?
मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? खाना-पीना, मौज-शौक करना, सो जाना और दूसरे दिन प्रातः उठकर पुनः उन्हीं कार्यो में लग जाना। यह सभी कार्य तो पशु भी करते हैं। ऐसे जीवन जीने वाले मनुष्य और पशु में क्या अन्तर? मानव में चेतना का सर्वाधिक विकास होने के कारण एक विशेषता होती है कि वह जानता भी है और समझता भी है कि वह क्या कर रहा है? क्यों कर रहा है? क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? मानव में ही चिन्तन, मनन की अपूर्व क्षमता, बुद्धि तथा विवेक होता है। जिससे भूतकाल की भूलों का सुधार और भविष्य के सुखद जीवन की कल्पना एवं सम्यक् पुरुषार्थ कर सकता है। अतः मानव से ही अपनी क्षमताओं के अनुरूप सही उद्देश्य एवं लक्ष्य के प्रति आगे बढ़ने की अपेक्षा रखी जा सकती है।
7. स्वास्थ्य के प्रति स्वयं की सजगता आवश्यक
शरीर, मन और आत्मा के बारे में अधिकांश व्यक्तियों को जानने, सोचने, समझने की जिज्ञासा ही नहीं होती। स्वास्थ्य के बारे में हमारी सोच पूर्णतया सही नहीं होती। क्या गलत? क्या सही? क्या उचित? क्या अनुचित? क्या प्राथमिक, अति आवश्यक? क्या साधारण, क्या करणीय? क्या अकरणीय? प्रत्येक तथ्य का कारण एवं मूल क्या? क्यों? कब? कितना जानने का प्रयास करें, समस्या अथवा रोग का पता लग जाएगा। शरीर क्या स्वीकार करता है और क्या नहीं, समझ में आ जाएगा।
अधिकांश रोग प्रायः स्वयं की गलतियों, उपेक्षावृत्ति से उत्पन्न होते हैं। अतः उपचार में स्वयं की सजगता और सम्यक् पुरुषार्थ आवश्यक है। जब तक रोगी रोग के कारणों से नहीं बचेगा, उसकी गम्भीरता को नहीं स्वीकारेगा तब तक पूर्ण स्वस्थ कैसे हो सकेगा? रोग प्रकट होने से पूर्व अनेक बार अलग-अलग ढंग से चेतावनी देता है। परन्तु रोगी उस तरफ ध्यान ही नहीं देता। इसी कारण उपचार एवं परहेज के बावजूद चिकित्सा लम्बी, अस्थायी, दुष्प्रभावों वाली हो तो भी आश्चर्य नहीं? अतः रोग होने की स्थिति में रोगी को स्वयं से पूछना चाहिये कि उसको रोग क्यों हुआ? रोग कैसे हुआ? कब ध्यान में आया? रोग से उसकी विभिन्न, शारीरिक प्रक्रियाओं तथा स्वभाव में क्या परिवर्तन हो रहे हैं? इस बात की जितनी सूक्ष्म जानकारी रोगी को हो सकती है, उतनी अन्य को नहीं।
8. अच्छी चिकित्सा के मापदण्ड
अच्छी चिकित्सा पद्धति शरीर को आरोग्य ही नहीं, नीरोग रखती है। अर्थात् जिससे शरीर में रोग उत्पन्न ही न हो। रोग होने का कारण आधि (मानसिक रोग), व्याधि (शारीरिक रोग), उपाधि (कर्मजन्य रोग) के विकार होते हैं। अतः अच्छी चिकित्सा तीनों प्रकार के विकारों को समाप्त कर समाधि दिलाने वाली होती है। अच्छी चिकित्सा पद्धति के लिए आवश्यक होता है- रोग के मूल कारणों का सही निदान, स्थायी एवं प्रभावशाली उपचार। इसके साथ-साथ जिस पद्धति में रोग का प्रारम्भिक अवस्था में ही निदान हो सके तथा जो रोगों को रोकने में सक्षम हो। जो पद्धति सहज हो, सरल हो, सस्ती हो, स्वावलम्बी हो, दुष्प्रभावों से रहित हो, पूर्ण अहिंसक हो तथा जिसमें रोगों की पुनरावृत्ति न हो। जो चिकित्सा शरीर को स्वस्थ करने के साथ-साथ मनोबल और आत्मबल बढ़ाती हो तथा जो सभी के लिए, सभी स्थानों पर सभी समय उपलब्ध हो। अच्छी चिकित्सा पद्धति के तो प्रमुख मापदण्ड यही होते हैं। जो चिकित्सा पद्धतियाँ इन मूल सनातन सिद्धान्तों की जितनी ज्यादा पालना करती है, वे उतनी ही अच्छी चिकित्सा पद्धतियाँ होती हैं। अच्छी चिकित्सा का मापदण्ड भीड़ अथवा विज्ञापन नहीं होता अपितु अन्तिम परिणाम होता है। मात्र रोग में राहत ही नहीं, स्थायी उपचार होता है। दवाओं की दासता से मुक्ति होती है। अतः जो रोगी उपचार से पूर्व निदान और उपचार की सत्यता पर अपनी शंकाओं का चिकित्सक से सन्तोशजनक समाधान प्राप्त करने के पश्चात् उपचार कर पाता है, वह शीघ्र ही रोगमुक्त हो जाता है।
9. स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियों के सिद्धान्त
शरीर में रोग के अनुकूल दवा बनाने की क्षमता होती है और यदि उन क्षमताओं को बिना किसी बाह्य दवा और आलम्बन विकसित कर दिया जाता है तो उपचार अधिक प्रभावशाली, स्थायी एवं भविष्य में पड़ने वाले दुष्प्रभावों से रहित होता है। शरीर का विवेक पूर्ण सजगता के साथ उपयोग करने की विधि स्वावलम्बी जीवन की आधारशिला होती है। मानव की क्षमता, समझ और विवेक जागृत करना उसका उद्देश्य होता है। उपचार में रोगी की भागीदारी मुख्य होती है। अतः रोगी उपचार से पड़ने वाले प्रभावों के प्रति अधिक सजग रहता है, जिससे दुष्प्रभावों की सम्भावना प्रायः नहीं रहती। ये उपचार बालक, वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित, गरीब-अमीर, शरीर विज्ञान की विस्तृत जानकारी न रखने वाला साधारण व्यक्ति भी आत्मविश्वास से स्वयं कर सकता है।
10. अहिंसक चिकित्सा पद्धतियाँ क्यों श्रेष्ठ?
चिकित्सा पद्धतियों को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम तो बिना दवा वाली स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ तथा दूसरी दवाओं के माध्यम से उपचार करने वाली परावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ। स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियों में स्वयं का उपचार स्वयं द्वारा किया जाता है, उसमें उपचार हेतु दवा अथवा चिकित्सकों पर पूर्णतया निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं होती ।
ऐसी स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियों में बिना किसी जीव को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कष्ट पहुँचाए पूर्णतः अहिंसक एवं दुष्प्रभावों से रहित सहजता से उपलब्ध साधनों का सहयोग लिया जाता है। इसमें शरीर, मन और आत्मा में जो जितना महत्वपूर्ण होता है, उसको उसकी क्षमता के अनुरूप महत्व एवं प्राथमिकता दी जाती है। प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों की उपेक्षा न हो, इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है। शरीर विज्ञान के विशेष जानकारी की आवश्यकता नहीं होती है। ये उपचार सहज, सरल, सस्ते, सर्वत्र उपलब्ध होने से व्यक्ति को सजग, स्वतंत्र, स्वावलंबी एवं सम्यक् सोच वाला बनाते हैं। ये चिकित्सा पद्धतियाँ हिंसा पर नहीं अहिंसा पर, विषमता पर नहीं समता पर, साधनों पर नहीं साधना पर, दूसरों पर नहीं स्वयं पर, क्षणिक राहत पर नहीं , अपितु अंतिम प्रभावशाली स्थायी परिणामों पर आधारित होती हैं। रोग के लक्षणों की अपेक्षा रोग के मूल कारणों को नष्ट करती है, जो शरीर के साथ साथ मन एवं आत्मा के विकारों को दूर करने में सक्षम होती है। ये पद्धतियाँ प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों पर आधारित होने के कारण अधिक प्रभावशाली , वैज्ञानिक, मौलिक एवं निर्दोष होती हैं।
11. स्वावलम्बी उपचार कितना सरल
हम साल के 365 दिनों में अपने घरों में बिजली के तकनीशियन को प्रायः 8 से 10 बार से अधिक नहीं बुलाते। 355 दिन जैसे स्विच चालू करने की कला जानने वाला बिजली के उपकरणों का उपयोग आसानी से कर सकता है। उसे यह जानने की आवश्यकता नहीं होती कि बिजली का आविष्कार किसने, कब और कहाँ किया? बिजलीघर से बिजली कैसे आती है? कितना वोल्टेज, करेन्ट ओर फ्रिक्वेन्सी है? मात्र स्विच चालू करने की कला जानने वाला उपलब्ध बिजली का उपयोग कर सकता है। विभिन्न स्वावलम्बी अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियों की ऐसी साधारण जानकारी से व्यक्ति न केवल स्वयं को स्वस्थ रख सकता है, अपितु असाध्य से असाध्य रोगों का बिना किसी दुष्प्रभाव प्रभावशाली ढंग से उपचार भी कर सकता है। स्विच चालू करने की प्रक्रिया चंद मिन्टों में कोई भी सीख सकता है। मोबाइल का उपयोग करने वालों को बातचीत करने हेतु मोबाइल के सारे पुर्जो की जानकारी आवश्यक नहीं होती। ठीक उसी प्रकार साधारण परिस्थितियों में स्वस्थ रहने हेतु जनसाधारण को शरीर विज्ञान की विस्तृत जानकारी की आवश्यकता नहीं होती।
12. स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ मौलिक चिकित्सा पद्धतियाँ है, वैकल्पिक नहीं
आजकल आधुनिक चिकित्सा के अतिरिक्त अन्य सभी चिकित्सा पद्धतियों को वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में मान्यता प्राप्त है, उसमें कितनी सत्यता है प्रत्येक बुद्धिमान, सजग, सम्यक चिन्तनशील व्यक्ति के लिए चिंतन का प्रश्न है।
वैकल्पिक चिकित्सा कौनसी? स्वावलम्बी या परावलम्बी, सहज अथवा दुर्लभ, सरल अथवा कठिन, सस्ती अथवा महंगी। प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों पर आधारित प्राकृतिक या नित्य बदलते मापदण्डों वाली अप्राकृतिक, अहिंसक अथवा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा, निर्दयता, क्रूरता को बढ़ावा देने वाली। दुष्प्रभावों से रहित अथवा दुष्प्रभावों वाली। शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता बढ़ाने वाली या कम करने वाली। रोग का स्थायी उपचार करने वाली अथवा राहत पहुंचाने वाली। सारे शरीर को एक इकाई मानकर उपचार करने वाली अथवा शरीर का टुकड़ों-टुकड़ों के सिद्धान्त पर उपचार करने वाली।
उपर्युक्त मापदण्डों के आधार पर हम स्वयं निर्णय करें कि कौनसी चिकित्सा पद्धति मौलिक है और कौनसी वैकल्पिक? मौलिकता का मापदण्ड भ्रामक विज्ञापन अथवा संख्याबल नहीं होता। करोड़ों व्यक्तियों के कहने से दो और दो पांच नहीं हो जाते। दो और दो तो चार ही होते हैं। अतः हमें स्वीकार करना होगा कि स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ भी मौलिक चिकित्सा पद्धतियाँ हैं, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ नहीं हैं?
किसी बात को बिना सोचे समझे स्वीकार करना यदि मूर्खता है तो अनुभूत सत्य को बिना सम्यक् चिन्तन एवं तर्क की कसौटी पर कसे, प्रचार-प्रसार के अभाव में पूर्वग्रसित गलत धारणाओं के कारण अस्वीकार करने वालों को कैसे बुद्धिमान कहा जा सकता है?
13. चिकित्सा हेतु हिंसा अनुचित
आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान की जानकारी हेतु करोड़ों जानवरों का प्रतिदिन विच्छेदन किया जाता है। दवाइयों के निर्माण और उनके परीक्षण हेतु जीव-जन्तुओं को निर्दयता, क्रूरतापूर्वक यातना दी जाती है। किसी को दुःख देकर सुख और शांति कैसे मिल सकती है? यह तो पशुता एवं अनैतिकता का लक्षण है। जैसा करेंगे वैसा फल मिलेगा, यह कर्म का सनातन सिद्धान्त है। प्रकृति के न्याय में देर हो सकती है परन्तु अन्धेर नहीं। जो हम नहीं बना सकते, उसको स्वार्थवश नष्ट करना बुद्धिमता नहीं। अतः चिकित्सा के नाम पर प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से हिंसा करना, कराना और करने वालों को सहयोग देना अपराध है। जिसका परिणाम हिंसा में सहयोग देने वालों को भविष्य में रोगी बन भुगतना पड़ेगा। हिंसक दवाओं के माध्यम से शरीर में जाने वाली उन बेजुबान प्राणियों की बद्दुवाओं की तरंगें शरीर को दुष्प्रभावों से ग्रसित करे, तो आश्चर्य नहीं। अतः चिकित्सा हेतु प्रत्यक्ष या परोक्ष हिंसा, कर्जा चुकाने हेतु ऊँचे ब्याज पर कर्जा लेने के समान नासमझी होती है।
14. अध्यात्म से शून्य स्वास्थ्य विज्ञान अपूर्ण
जिस चिकित्सा विज्ञान में शारीरिक स्वास्थ्य ही प्रमुख हों, मन, भावों अथवा आत्मा के विकार जो अधिक खतरनाक, हानिकारक होते हैं, गौण अथवा उपेक्षित होते हों, ऐसी चिकित्सा पद्धतियों को ही वैज्ञानिक समझने वाले, विज्ञान की बातें भले ही करते हों, विज्ञान के मूल सिद्धान्तों से अपरिचित लगते हैं। विज्ञान शब्द का अवमूल्यन करते हैं। सनातन सत्य पर आधारित प्राकृतिक सिद्धान्तों को नकारते हैं। ऐसी सोच गाड़ी में पेट्रोल डाल चालक को भूखा रखने के तुल्य ही होती है। ऐसी गाड़ी में यात्रा करने वाला यात्री लम्बी दूरी की यात्रा कैसे कर सकेगा? चैतन्य आत्मा की उपेक्षा नौकर को सेठ से ज्यादा महत्त्व देने के समान नासमझी होती है। उसी प्रकार आत्मा रूपी मालिक की उपेक्षा कर मात्र शरीर का ही खयाल रखने वालों को ज्ञानी, समझदार, बुद्धिमान कैसे कहा जाए?
15. स्वस्थ रहना स्वयं के हाथ
क्या स्वयं के अज्ञान, अविवेक, असजगता के कारण तथा हमारी असंयमित, असंतुलित और अप्राकृतिक जीवन शैली से तो रोग पैदा नहीं होते हैं? उनकी उपेक्षा कर दीर्घकाल तक पूर्ण स्वस्थ रहने की हमारी कल्पना, क्या आग लगाकर ठण्डक प्राप्त करने जैसी मूर्खतापूर्ण तो नहीं है? क्या हमारी श्वास अन्य व्यक्तिले सकता है? क्या हमारा निगला हुआ भोजन दूसरा व्यक्ति पचा सकता है? क्या हमारी प्यास किसी अन्य व्यक्ति के पानी पीने से शान्त हो सकती है? क्या हमारा दर्द, पीड़ा, वेदना हमारे परिजन ले सकते हैं? प्रायः रोग के प्रमुख कारण रोगी की स्वयं की असावधानी से पैदा होते हैं। अपनी स्थिति से जितना हम स्वयं परिचित होते हंै, दूसरा उतना परिचित हो नहीं सकता। यंत्र और रासायनिक परीक्षण तो मात्र शरीर में होने वाले भौतिक परिवर्तनों को बतलाने में तनिक सहायता कर सकते हैं। आसपास का प्रदूषित वातावरण, पर्यावरण, अशुद्ध भोजन सामग्री, अशुद्ध पानी और प्रदूषित वायु रोगों का कारण हो सकते हैं। परन्तु शरीर की प्रतिरोधक क्षमता ठीक हो तो बाह्य कारण अकेले व्यक्ति को रोगग्रस्त नहीं बना सकते। जब रोग व्यक्ति के स्वयं की गलतियों से ज्यादातर पैदा होता है तो स्वास्थ्य को बनाए रखने तथा रोग होने पर उसके उपचार में रोगी की सजगता, भागीदारी, सम्यक् चिन्तन और सम्यक् पुरुषार्थ का सर्वाधिक महत्त्व होता है।
16. स्वास्थ्य के लिए स्वयं का संयम और सम्यक् पुरुषार्थ आवश्यक
रोग होने के कारणों को मुख्य रूप से दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम तो स्वयं से सम्बन्धित और दूसरा अन्य बाह्य वातावरण अथवा परिस्थितियों से संबंधित। जो रोग स्वयं से सम्बन्धित होता है, उसका उपचार तो स्वयं के द्वारा ही सम्भव होता है। परावलम्बन बन्धन है, फिर वह चाहे डाॅक्टर का हो या दवा का। स्वयं के द्वारा स्वयं की चिकित्सा करने की विधि को ही स्वावलम्बी चिकित्सा कहते हैं। अतः व्यक्ति के स्वयं पर निर्भर करता है कि वह रोग-ग्रस्त जीवन जीना चाहता है या स्वस्थ जीवन। चाहने मात्र से तो स्वास्थ्य नहीं मिलता अपितु स्वस्थ जीवन जीने के लिए सजगता, नियमितता, सम्यक् पुरुषार्थ आवश्यक होता है।
अतः जो चिकित्सा पद्धतियाँ व्यक्ति को जितना-जितना स्वावलम्बी बनाने में सक्षम होती हैं, वे उतनी ही अधिक उपयोगी एवं प्रभावशाली होती हैं तथा उनका उपचार स्थायी और दुष्प्रभावों से रहित होता है। आज सबसे बड़ी समस्या अपने आप पर अनास्था की है। अपनी क्षमताओं से अनभिज्ञता की है। हमारे चिन्तन एवं सोच का समस्त आधार भीड़, विज्ञापन, अन्धानुकरण, बाह्य वातावरण होता है, न कि स्वविवेक और सम्यक् चिन्तन।
17. आरोग्य एवं निरोगता में अन्तर
नीरोग का मतलब शरीर में रोग उत्पन्न ही न हों, जबकि आरोग्य का मतलब शरीर में रोगों की उपस्थिति होते हुए भी हमें उनकी पीड़ा और दुष्प्रभावों का अनुभव न हो। आज हमारा सारा प्रयास, प्रायः आरोग्य रहने तक ही सीमित होता है। आज हम मात्र शारीरिक रोगों को ही रोग मान रहे हैं। आत्मिक रोग, शारीरिक और मानसिक रोगों से ज्यादा खतरनाक होते हैं, जो हमें जन्म-मरण एवं विभिन्न योनियों में भटकाते हैं। शारीरिक रूप से भी नीरोग बनना प्रायः असम्भव लगता है। रोग चाहे शारीरिक हो, चाहे मानसिक अथवा आत्मिक, उसका प्रभाव तो शरीर पर ही होगा। अभिव्यक्ति तो शरीर के माध्यम से ही होगी, क्योंकि आत्मा तो अरूपी है और मन को भी हम अपने चर्म चक्षुओं द्वारा देखने में असमर्थ हैं। मुख्य रूप से रोग आधि (मानसिक), व्याधि (शारीरिक), उपाधि (कर्म-जन्य) के रूप में ही प्रकट होते हैं। अतः आधि, व्याधि और उपाधि का शमन करने से ही समाधि, स्वस्थता एवं परमशान्ति अर्थात् नीरोग अवस्था की प्राप्ति हो सकती है।
18. रोग हमारा मित्र है शत्रु नहीं
अधिकांश रोगों का कारण हम स्वयं ही होते हैं। रोग के सम्बन्ध में हमारी गलत धारणाएँ हैं। दर्द अथवा रोग के अन्य लक्षण हमें सजग करते हैं। अपने कर्तव्यबोध हेतु चिन्तन करने की प्रेरणा देते हैं। हमें चेतावनी देते हैं, कि हम अपने आपका निरीक्षण कर, अपने आपको बदलें ताकि पीड़ा मुक्त, तनाव मुक्त जीवन जी सकें। हम स्पप्न में जी रहे हैं यानी बेहोशी में हैं। दर्द अथवा रोग के अन्य संकेत उस बेहोशी को भंग कर हमें सावधान करते हैं परन्तु सही दृष्टि न होने से हमने, उनको शत्रु मान लिया है। रोगी शरीर की आवाज सुनना और भाषा को समझना नहीं चाहता। उपचार स्वयं के पास है और खोजता है बाजार में, डाॅक्टर और दवाइयों के द्वारा। फलतः दवा द्वारा रोग के कारणों को दबा कर खुश होने का असफल प्रयास करता है। रोगी जितना डाॅक्टर, दवा अथवा अन्य शुभचिन्तकों, अधूरे ज्ञान वाले सलाहकारों पर विश्वास करता है, उतना अपने आप पर एवं अपनी क्षमताओं पर विश्वास नहीं करता। यही तो सबसे बड़ा मिथ्यात्व (गलत मान्यता) है। जब रोग का कारण स्वयं है तो उपचार भी स्वयं के पास अवश्य होना चाहिए। शरीर की स्वचलित प्रणाली आँतें, गुर्दे, फेंफड़े और त्वचा शरीर के किसी भी भाग में एकत्र हुए अनुपयोगी, विजातीय अथवा अवांछित तत्त्वों को किसी न किसी प्रकार का सफाई अभियान चलाकर, उसे जुखाम, बुखार, फोड़े-फुन्सी, मल-मूत्र अथवा पसीने आदि के रूप में शरीर से बाहर फेंक कर शरीर की विभिन्न कार्य प्रणालियों के कार्य को सामान्य रूप में लाने का प्रयास करती है। प्रकृति रोग के द्वारा यह दर्शाती है कि हम गलती कर रहे हैं। प्रारम्भिक अवस्था में प्रकट होने वाले रोग के लक्षण हमारे मित्र होते हैं। हमें हमारी असजगता के कारण भविष्य में होने वाले दुष्परिणामों की चेतावनी देकर सचेत करते हैं। यह तो हमारे शारीरिक प्रक्रिया का एक उपकारी एवं हितैषी कार्य है, जिसमें हमें सहयोग करना चाहिए। यह कोई शत्रुता पूर्ण कार्य नहीं जिसे रोका जाए, विरोध किया जाए अथवा जिसे नष्ट किया जाए। परन्तु अज्ञानवश आज हम इन संकेतों को दुश्मन मान दवाइयों द्वारा उनको दबा कर अपने आपको बुद्धिमान समझने की भूल कर रहे हैं। कचरे को दबाकर अथवा छिपाकर रखने से उसमें अधिक सड़ांध, बदबू अथवा अवरोध की समस्या ही पैदा होगी। दीमक लगी लकड़ी पर रंग रोगन करने से बाहरी चमक भले ही आ जावे, परन्तु मजबूती नहीं आ सकती। औषधियों के माध्यम से इस सफाई अभियान को रोकने से तो विषौले अथवा दूषित तत्त्वों के शरीर के अन्दर रुके रहने से धीरे-धीरे शरीर की कार्यप्रणाली में अवरोध बढ़ता जाएगा। जो भविष्य में विभिन्न गम्भीर रोगों को जन्म देने का कारण बनते हैं। अधिकांश मौसमी एवं वायरस रोगों का यही प्रमुख कारण होता है। वे चाहे मलेरिया, चेचक, चिकनगुनिया, डेंगू, प्लेग, इबेलो, एन्थ्रेक्स, स्वाइन फ्लू आदि किसी भी नाम से पुकारे जाते हों। दवाओं द्वारा लक्षणों को दबा देने से एक तरफ तो रोग के कारण बने रहते हैं, दूसरी तरफ दवाएँ प्रायः शरीर की रोग प्रतिकारात्मक क्षमताओं को क्षीण कर देती हैं। परिणामस्वरूप भविष्य में नित्य नवीन रोगों के पनपने की संभावनाएँ बनी रहती है।
19. क्या राहत ही पूर्ण चिकित्सा हो सकती है?
रोग में राहत का बहुत महत्त्व होता है। राहत का मतलब होता है कि किसी भी विधि द्वारा रोग के प्रभाव को कम करना जिससे दर्द, पीड़ा, बेचैनी कम हो जाए एवं शरीर में सहनीय स्थिति उत्पन्न हो जाए। अर्थात् राहत की प्राथमिकता रोग को दबाने अथवा असक्रिय करने तक सीमित होती है, न कि रोग को जड़ से मिटाने अथवा निष्क्रिय करने की। जैसे अंगारे पर राख आ जाने से उसकी गर्मी का प्रभाव कम हो जाता है। दीमक लगी लकड़ी पर रंग-रोगन करने से उसकी खराबी छिप जाती है। कचरे पर कपड़ा डालने से अस्वच्छता ध्यान में नहीं आती। जबकि अंगारे की गर्मी, लकड़ी में दीमक लगने से आने वाली खराबी एवं कचरे का दुष्प्रभाव बना रहता है। अतः जब तक रोग का कारण बना रहता है, भविष्य में रोग होने की सम्भावनाएँ सदैव बनी रहती है। अच्छे उपचार का मतलब रोग को जड़ से दूर करना। सदैव के लिए उसके कारणों, लक्षणों एवं प्रभाव को निश्क्रिय करना, ताकि भविष्य में उन कारणों से किसी भी रूप में रोग की पुनरावृत्ति न हो। आधुनिक चिकित्सा पद्धति का उद्देश्य एवं प्राथमिकताएँ तात्कालिक परिणामों पर आधारित होने से प्रायः राहत तक ही सीमित होता है। उपचार के कारण भविष्य में पड़ने वाले दवाओं के दुष्प्रभावों की उपेक्षा होती है। संक्रामक और असाध्य रोगों में तो दवा जीवनपर्यन्त आवश्यक बन जाती है।
20. चिकित्सा हेतु व्यापक दृष्टिकोण आवश्यक
आज लोगों की ऐसी प्रवृत्ति बन गई है कि वे वैज्ञानिक तथ्यों को ही सुनना, समझना और ग्रहण करना पसन्द करते हैं। भले ही वे भौतिक विज्ञान एवं स्वास्थ्य विज्ञान के मूल सिद्धान्तों में अन्तर से अपरिचित ही क्यों न हों? शरीर में रोग के अनुकूल दवा बनाने की क्षमता होती है और यदि उन क्षमताओं को बिना किसी बाह्य दवा और आलम्बन विकसित कर दिया जाता है तो उपचार अधिक प्रभावशाली, स्थायी एवं भविष्य में पड़ने वाले दुष्प्रभावों से रहित होता है। वास्तव में आज स्वास्थ्य विज्ञान भौतिक विज्ञान तक ही सीमित हो रहा है। अपना महत्त्व बताने हेतु भ्रामक विज्ञापनों का उसे सहारा लेना पड़ रहा है। फलतः प्रकृति के सनानत सिद्धान्तों की उपेक्षा विज्ञान की आड़ में हो रही है। बुराई को गलत न मानने वाले बुराई को नहीं छोड़ सकते। ठीक उसी प्रकार आधुनिक चिकित्सा पद्धति के दुष्प्रभावों को समझे बिना न तो उसके प्रति हमारा मोह भंग होता है और न अन्य चिकित्सा पद्धतियों को जानने, समझने और अपनाने के प्रति जनसाधारण का आकर्षण ही सम्भव है। प्रत्येक चमकती वस्तु सोना नहीं होती। ठीक उसी प्रकार आधुनिक चिकित्सा का निदान सदैव सही हो और उपचार भी सभी रोगों में लाभकारी और प्रभावशाली ही हो यह आवश्यक नहीं। आज रोग के लिए डाॅक्टर न होकर डाॅक्टर के लिए रोग है, समझा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं। जितने व्यक्ति दवाओं के दुष्प्रभाव और गलत निदान द्वारा होने वाले उपचार से पीड़ित हैं अथवा मृत्यु को प्राप्त करते हैं, उतने व्यक्ति अकाल, तूफान, युद्ध, महामारी आदि प्रकृति के अन्य प्रलयों में मिलकर भी नहीं मरते। यह कटुसत्य है तथा चिन्तन और चिन्ता का विषय है।
21. चिकित्सा पद्धतियों की तुलना का मापदण्ड क्या हो?
वर्तमान में प्रभावशाली स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ सरकारी उपेक्षा की शिकार हैं। अभी तक सरकार द्वारा न तो उन पर शोध को अपेक्षित प्रोत्साहन दिया जा रहा है और न ही उनके प्रशिक्षण एवं उपचार व्यवस्था की ओर सरकार का विशेश ध्यान ही जा रहा है। भले ही वे चिकित्सा के मापदण्डों में सरकारी मान्यता प्राप्त विकसित और वैज्ञानिक समझी जाने वाली आधुनिक चिकित्सा पद्धति से काफी आगे ही क्यों न हों? जब तक सरकारी सोच में बदलाव नहीं आएगा, रोग के मूल कारणों को जानने व समझने की उपेक्षा होगी, दुश्प्रभावों की अनदेखी होगी, चिन्तन में तथ्यपरक अनेकान्त दृश्टिकोण नहीं आएगा, तब तक सरकार से अच्छे स्वास्थ्य हेतु सहयोग की अपेक्षा करना व्यर्थ होगा। इसी कारण जितने ज्यादा चिकित्सक बढ़ रहे हैं, अस्पताल खुल रहे हैं उससे भी तेज रफ्तार में नए-नए रोग व रोगियों की संख्या में वृद्धि हो रही है, जो कटु सत्य है।
22. क्या वायरस ही रोग का मुख्य कारण हो सकता है?
आधुनिक चिकित्सा पद्धति रोग का मुख्य कारण शरीर में वायरस अथवा रोग के कीटाणुओं को मानती है। मानव अनन्त शक्तिशाली होता है। उसमें अनन्त क्षमता होती है। क्या लाखों चूहे मिलकर किसी शेर को परेशान कर सकते हैं? हां यदि शेर को अपनी क्षमता का खयाल न हो, वह प्रमादी हो अथवा गहरी निद्रा में सोया हुआ हो, तो निश्चित रूप से उसे परेशानी हो सकती है। अन्यथा चूहे उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते। ठीक उसी प्रकार यदि हमारी प्रतीकारात्मक शक्ति अच्छी हो तो वायरस और कीटाणु हमारा क्या बिगाड़ सकते हैं? गन्दी बस्तियों में रहने वाले, रोजाना पाखाना और गटर, नालियों की सफाई करने वाले व्यक्ति और प्रतिदिन अस्पताल में असाध्य एवं संक्रामक रोगियों के बीच रह कर सेवायें देने वाले चिकित्सकों और नर्सेज आदि को तो इस मान्यतानुसार सदैव रोग ग्रस्त ही होना चाहिये? परन्तु इसमें कितनी वास्तविकता है, जन साधारण से छिपी नहीं है।
23. आधुनिक दवाइयाँ कितनी विश्वसनीय?
क्या बाजार में उपलब्ध दवाइयों अथवा इंजेक्शन रोगी विशेष के अनुरूप बनाए जाते हैं? दवा कैसे बनती है? कौन-कौनसे आवश्यक और कम उपयोगी अथवा अनावश्यक तत्त्व कितनी-कितनी मात्रा में होते हैं? इस बात का ज्ञान अथवा जानकारी उपचार करने वाले चिकित्सक को प्रायः नहीं होती है। क्या डाॅक्टर दवा से पड़ने वाले दुश्प्रभावों का सही आंकलन कर सकते हैं? क्या दवा में आवश्यकता से विपरीत कम या अधिक तत्त्वों की मात्रा शरीर में असन्तुलन तो पैदा नहीं करेगी? क्या दवाइयों का परीक्षण एक जैसे रोगियों, वातावरण और परिस्थितियों में किया जाता है? दवाइयों के परीक्षण में ऐसा असम्भव ही होता है। जब रोग का कारण रोगी का चिन्तन, मनन,सोच, स्वभाव, तनाव, खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार, जीवनशैली आदि प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती है, तो लक्षणों के आधार पर किया गया निदान, परीक्षण और उपचार कैसे सटीक और वैज्ञानिक हो सकता है? प्रत्येक रोगी के लिए दवा का निर्माण उसके स्वयं की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए। बाजार से उपलब्ध दवा शत-प्रतिशत कैसे सही हो सकती है? ऐसे परिणाम कभी भी एक जैसे नहीं हो सकते। जब तक दवा का निर्माण रोगी की व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होगा तो उपचार कैसे पूर्ण, प्रभावशाली, स्थायी हो सकता है? मात्र प्रमुख लक्षणों को दबा कर रोग में राहत पाना ही उपचार का ध्येय नहीं होता। दवाइयों के अनावश्यक सेवन से शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति क्षीण होने लगती है। अतः ऐसा उपचार प्रायः अधूरा ही होता है।
24. स्वास्थ्य मंत्रालय से अपेक्षाएँ
स्वास्थ्य मंत्रालय को आधुनिक चिकित्सा पद्धति का अन्धानुकरण करने से पूर्व मौलिक चिकित्सा कौनसी और क्यों?, सही निदान के मापदण्ड क्या?, वैकल्पिक चिकित्सा कौनसी और क्यों?, स्वास्थ्य विज्ञान और भौतिक विज्ञान में अन्तर क्या?, स्वस्थ कौन?, अच्छा स्वास्थ्य कैसा?, रोगी कौन?, रोग क्यों? आदि स्वास्थ्य से जुड़े मूल तथ्यों को परिभाषित करना चाहिये, ताकि अहिंसक चिकित्सा पद्धतियों की उन मापदण्डों के अनुसार तुलना की जा सके। भारत की जनता को रोग मुक्त करने हेतु उनके पास तत्कालीन और दीर्घकालीन क्या योजनाएं है? स्वास्थ्य के नाम पर अरबों रुपयों को खर्चकर अति आधुनिक अस्पतालों के निर्माण एवं चिकित्सकों की संख्या बढ़ने के बावजूद रोग और रोगियों की संख्या में क्यों वृद्धि हो रही है? क्या कहीं मूल में तो भूल नहीं हो रही है? जिस चिकित्सा पद्धति के दुष्प्रभावों से सारी समस्यायें हो रही है, क्या उन्हीं से उसका समाधान प्राप्त करने की भूल तो नहीं हो रही है? विज्ञापन और शीघ्रता के इस युग में जिस मानसिकता में हम जी रहे हैं, जो चिकित्सा न सहज है, न सरल है, न सस्ती है, न स्वावलम्बी है, न अहिंसक है, न पूर्ण है, न दुष्प्रभावों से रहित है, न स्थायी है, फिर भी आधुनिक चिकित्सा को विकसित, वैज्ञानिक, प्रभावशाली मानना कितनी बुद्धिमत्ता है? स्वास्थ्य प्रेमियों के लिए चिन्तन का प्रश्न है।