✖1. मानव जीवन क्या है?
जन्म और मृत्यु के बीच की अवस्था का नाम जीवन है। जीवन को समझने से पूर्व जन्म और मृत्यु के कारणों को समझना आवश्यक होता है। जिसके कारण हमारा जीव विभिन्न योनियों में भ्रमण करता है। जन्म और मृत्यु क्यों? कब? कैसे और कहाँ होती है? उसका संचालन और नियन्त्रण कौन और कैसे करता है? सभी की जीवन शैली, प्रज्ञा, सोच, विवेक, भावना, संस्कार, प्राथमिकताएँ, उद्देश्य, आवश्यकताएँ आयुष्य और मृत्यु का कारण और ढंग एक-सा क्यों नहीं होता? मृत्यु के पश्चात् अच्छे से अच्छे चिकित्सक का प्रयास और जीवन दायिनी समझी जाने वाली दवाईयाँ क्यों प्रभावहीन हो जाती हैं? मृत्यु के पश्चात् शरीर के कलेवर को क्यों जलाया, दफनाया अथवा अन्य किसी विधि द्वारा समाप्त किया जाता है? सभी की आयु एक जैसी क्यों नहीं होती? किसी की बुद्धि, मन, इन्द्रियों और शरीर का पूर्ण विकास होता है तो कुछ जन्म से ही अविकसित, असन्तुलित, विकलांग अथवा अस्वस्थ क्यों होते हैं?
प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं से प्रश्न करना चाहिए कि- ‘‘मैं कौन हूँ? मैं कहाँ से आया हूँ? मुझे मानव जन्म क्यों और कैसे मिला? मानव जीवन में भी सभी को एक-जैसी परिस्थितियाँ और वातावरण क्यों नहीं मिलते? सभी की आयु एक जैसी क्यों नहीं होती? किसी की बुद्धि, मन, इन्द्रियों और शरीर का पूर्ण विकास होता है तो कुछ जन्म से ही अविकसित, असन्तुलित, विकलांग अथवा अस्वस्थ क्यों होते हैं? जन्म के साथ परिवार, समाज, धर्म और संस्कृति, परिस्थितियाँ, कार्यक्षेत्र तथा जीवन को प्रभावित करने वाले विभिन्न प्रसंगों का संयोग अथवा वियोग क्यों मिलता है?
✖2. मानव जीवन अमूल्य
मानव जीवन अमूल्य है। वस्तु जितनी मूल्यवान होती है, उसका उपयोग उसके अनुरूप करने वाला ही सच्चा ज्ञानी होता है। हमें चिन्तन करना होगा कि मानव जीवन के रूप में प्राप्त हम अपनी ऐसी अमूल्य क्षमताओं का अप्राथमिक, अनावश्यक कार्यो में दुरुपयोग और अपव्यय तो नहीं कर रहे हैं? जब तक अपनी क्षमताओं का सही उपयोग नहीं होगा, दुःख और रोग के कारणों को नहीं समझा जाएगा तब तक हमारा जीवन अमर्यादित, अनियन्त्रित, लक्ष्य-हीन, स्वच्छन्द, असंयमित होने से स्थायी स्वास्थ्य एवं समाधि को प्राप्त नहीं कर सकता।
✖3. शारीरिक क्षमताओं का दुरुपयोग अनुचित
यदि कोई लाखों रुपये के बदले आपके शरीर का कोई अंग, उपांग अथवा इन्द्रियां आदि लेना चाहे तो यथा संभव कोई व्यक्ति नहीं देना चाहता, क्योंकि पैसों से उन अंगों को पुनः प्राप्त नहीं किया जा सकता। यहां तक लाखों रुपयों के बदले यदि आपको 15 मिनट श्वास रोकने का आग्रह करे तो क्या आप ऐसा करना चाहेंगे? नहीं! क्दापि नहीं। मृत्यु के पश्चात् उस पैसे का क्या उपयोग? क्या हमने कभी सोचा कि ऐसी अमूल्य श्वास जो हमें प्रतिक्षण निःशुल्क मिल रही है, उसे हम बराबर तो ले रहे हैं? अथवा नहीं। इतने अमूल्य मानव जीवन का उपयोग हम कैसे कर रहे हैं? यदि कोई रुपयों के नोटों के बंडल को चाय बनाने के लिए ईंधन के लिए जलादे तो हम उसे मूर्ख अथवा पागल कहते हैं। तब इस अमूल्य मानव जीवन की क्षमता का दुरुपयोग अथवा अपव्यय करने वालों को क्या कहा जाए? बुद्धिमान व्यक्ति के लिये चिन्तन का प्रश्न है? कहीं हमारा आचरण अज्ञानवश अपने आपको गरीब, दरिद्र मान अरबपति बाप के भिखारी बेटे की तरह दर-दर भीख मांगने जैसा तो नहीं है? अतः ठीक उसी प्रकार जिस शरीर में इतने अमूल्य उपकरण हों, उस शरीर में अपने आपको स्वस्थ रखने की व्यवस्था न हो, क्या यह संभव है?
✖4. अच्छे स्वास्थ्य हेतु निम्नतम आवश्यकताएँ
स्वस्थ जीवन जीने के लिए शरीर, मन और आत्मा, तीनों की स्वस्थता आवश्यक होती है। तीनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। तीनों के विकारों को दूर कर तथा सन्तुलित रख आपसी तालमेल द्वारा ही स्थायी स्वास्थ्य को जीया जा सकता है। अतः स्वास्थ्य की चर्चा करते समय जहाँ एक-तरफ हमें यह समझना आवश्यक है कि शरीर, मन और आत्मा का सम्बन्ध क्या है? किसका कितना महत्त्व है? दूसरी तरफ जीवन की मूलभूत आवश्यक ऊर्जा स्रोतों का सम्यक् उपयोग करना होता है तथा दुरुपयोग अथवा अपव्यय रोकना पड़ता है।
स्वास्थ्य के लिए हमारे शरीर में समाधान हैं, प्रकृति में समाधान हैं, वातावरण में समाधान हैं। भोजन, पानी और हवा के सम्यक् उपयोग और विसर्जन में समाधान हैं। समाधान भरे पड़े हैं, परन्तु उस व्यक्ति के लिए कोई समाधान नहीं है, जिसमें अविवेक और अज्ञान भरा पड़ा है।
✖5. मानव जीवन का उद्देश्य क्या?
मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? खाना-पीना, मौज-शौक करना और सो जाना और दूसरे दिन प्रातः उठकर पुनः उन्हीं कार्यों में लग जाना। यह सभी कार्य तो पशु भी करते हैं। ऐसे जीवन जीने वाले मनुष्य और पशु में क्या अन्तर? मानव में चेतना का सर्वाधिक विकास होने के कारण एक विशेषता होती हैं कि वह जानता भी है और समझता भी है कि वह क्या कर रहा है? क्यों कर रहा है? क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए? मानव में ही चिन्तन, मनन की अपूर्व क्षमता, बुद्धि तथा विवेक होता है। जिससे भूत की भूलों को सुधार और भविष्य के सुखद जीवन की कल्पना एवं सम्यक् पुरुषार्थ कर सकता है। अतः मानव से ही अपनी क्षमताओं के अनुरूप सही उद्देश्य एवं लक्ष्य के प्रति आगे बढ़ने की अपेक्षा रखी जा सकती है।
हीरे की पहचान करने वाला जौहरी होता है और पत्थर समझ दुरुपयोग करने वाला मूर्ख। हम स्वयं ईमानदारी पूर्वक निर्णय करें, हम अमूल्य मानव जीवन का उपयोग कैसे कर रहे हैं? किसी भी जीव के प्राण अमूल्य होते हैं। पशु भले ही बेजुबान हो, बेजान नहीं होते। अतः जो प्राण हम दे नहीं सकते, उनको लेने का हमें कोई अधिकार नहीं है। सुख, शान्ति, प्रसन्नता एवं आनन्द चाहने वालों को अहिंसक जीवन शैली अपनाना मानवता एवं स्वास्थ्य की प्राथमिक आवश्यकता है।
✖6. स्वास्थ्य सम्बन्धी चिन्तनीय प्रश्न
1. क्या दो समान लक्षणों वाले रोगियों में प्रत्यक्ष-परोक्ष रोगों का परिवार पूर्णतः एक जैसा हो सकता है?
2. क्या शरीर में चिकित्सकों द्वारा निदान कृत अकेला रोग हो सकता है?
3. क्या आधुनिक निदान करते समय रोगी के मन, भाव व पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के विषयों के प्रति रुचि-अरुचि का प्रभाव तथा आयु, मौसम, आवेग आदि की समीक्षा होती है?
4. क्या रोग का उपचार करते समय रोग क्या? क्यों? कैसे? तथा स्वस्थ कौन? आदि तथ्यों की समीक्षा होती है।
5. क्या उपचार करते समय चिकित्सक द्वारा भोजन, पानी कब, क्यों, कैसा, कैसे, कितना आदि के सेवन का समग्र दृष्टिकोण से परामर्श दिया जाता है?
6. क्या निदान में रोग ग्रस्त अंगों के यिन-यांग सम्बन्धों, पंच महाभूत तत्त्वों एवं उनकी ऊर्जाओं के असंतुलन से पड़ने वाले प्रभावों की समीक्षा होती है?
7. क्या उपचार हेतु प्रत्यक्ष या परोक्ष हिंसा उचित है?
8. क्या भौतिक एवं प्राण ऊर्जा में अन्तर होता है?
9. क्या उपचार हेतु प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हिंसा का सेवन उचित है?
10. क्या शरीर में स्वयं स्वस्थ होने की क्षमता होती है?
11. प्रयोगशालाओं में शारीरिक अवयवों का निर्माण क्यों नहीं हो सकता?
12. क्या हमारे मन में निदान और उपचार की सत्यता को जानने की जिज्ञासा होती है?
13. क्या उपचार करवाते समय हम दवाइयों के दुष्प्रभावों की उपेक्षा करते है?
✖7. कर्मो से प्रभावित स्वास्थ्य
जो जन्म लेता है, वह एक दिन अवश्य मरता है, परन्तु कौन, कब, कहाँ और कैसे मरेगा? आज का चिकित्सा विज्ञान अथवा अनुभवी चिकित्सक भी बतलाने में असमर्थ हैं। एक जैसी घटना का प्रभाव सभी पर एक जैसा क्यों नही पड़ता? एक व्यक्ति साधारण सी प्रतिकूलता, रोग आदि में विचलित हो जाता है, जबकि दूसरा विकटतम परिस्थितियों, असाध्य एवं संक्रामक रोगों अथवा कष्ट के समय भी विचलित क्यों नहीं होता? आत्मा पर लिप्त कर्मों के अनुसार ही प्राणि मात्र को वातावरण और परिस्थितियाँ मिलती है। शरीर, मन और भावों की स्थिति बनती है। जिसकी अभिव्यक्ति वाणी द्वारा और शरीर में अवयवों के परिवर्तन के रूप में होती है और अन्त में रोगों का कारण बनती है।
दुनियाँ में कोई दो व्यक्ति पूर्ण रूप से शतप्रतिशत एक जैसे क्यों नहीं होते? सभी व्यक्तियों का आयुष्य समान क्यों नहीं होता? सभी व्यक्तियों की मृत्यु का ढंग एक जैसा क्यों नहीं होता? कोई लम्बे समय तक असाध्य रोग से पीड़ित होने के बावजूद, दिनरात तड़पते हुए तथा मृत्यु की चाहना करते हुए भी क्यों नहीं मरता? इसके विपरीत कभी-कभी बाह्य रूप से पूर्ण स्वस्थ दिखने वाले, कभी-कभी चन्द क्षणों पश्चात् ही संसार से विदा क्यों हो जाते हैं? हमारी आयु का निर्धारण कैसे होता है? उसका निर्धारण कौन और कब करता है? उसके निर्धारण का क्या आधार अथवा मापदण्ड होता है? अनुभवी ज्योतिष शास्त्री जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं की पूर्व में जानकारी कैसे देते हैं? क्या आज के चिकित्सक स्वास्थ्य के सम्बन्ध में ऐसी जानकारी बाल्यकाल में ही देने का दावा कर सकते है? जन्म से ही कोई व्यक्ति नेत्रहीन, बहरा, मूक, विकलांग अथवा असाध्य रोगों से कभी-कभी क्यों पीड़ित होता है? इसके विपरीत चन्द व्यक्ति स्वस्थ और रोगमुक्त क्यों होते हैं? एक सम्पन्न परिवार में जन्म लेता है, दूसरा अभावग्रस्त परिवार में क्यों? एक को अच्छा, उच्च कुल मिलता है, दूसरा नीच कुल में क्यों जन्म लेता है? एक की बुद्धि, प्रज्ञा प्रखर होती है तो अन्य अज्ञानी, मूर्ख अथवा अल्प बुद्धि वाला क्यों होता है? एक सत्याग्रही होता है तो दूसरा जानते, मानते हुए भी मिथ्या सोच अथवा दुराचरण वाला क्यों होता है? सुख-दुःख, संयोग-वियोग, अनुकूल-प्रतिकूल, अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों का संचालन व नियंत्रण कौन और कैसे करता है? सभी को एक जैसी परिस्थितियाँ और वातावरण क्यों नहीं मिलता? जिस प्रकार किसी कारखाने में निर्मित वस्तुओं का आकार, क्षमताएँ प्रायः एक जैसी होती है, वैसे ही सारे चेतनाशील प्राणी एक जैसे क्यों नहीं होते? सभी का स्वास्थ्य, चिन्तन, मनन, सोच, दृष्टिकोण भाग्य, क्षमताओं का विकास एक जैसा क्यों नहीं होता? हम जो भी कार्य या परिश्रम करते हैं, क्या उसका पूर्ण प्रतिफल हमेशा प्राप्त होता है? क्या कभी-कभी भाग्य से अपेक्षित पुरुषार्थ किए बिना किसी को पद, पैसा और सत्ता तो नहीं मिलती? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जो आत्मा के अस्तित्व तथा उसको प्रभावित करने वाले कर्मों की सत्ता स्वीकार करने के लिए विवश करते हैं। हमारा जीवन कर्म की सीमाओं से बँधा हुआ होता है।
✖8. आत्मा का महत्त्व
आत्मा को समझे बिना उसका मूल्य और महत्त्व कैसे पता लग सकता है? जीवन में उसकी उपेक्षा होना सम्भव है। आत्मा के विकार, मन,बुद्धि और वाणी को कैसे प्रभावित करते हैं? हमारे स्वास्थ्य को क्यों और कैसे बिगाड़ते हैं? आसानी से समझ में नहीं आ सकते। रोग के कारण बने रहने से पूर्ण स्वास्थ्य की भावना मात्र कल्पना बन कर रह जाती है। जिस प्रकार जड़ को सींचे बिना, मात्र फूल पत्ते को पानी पिलाने से वृक्ष सुरक्षित नहीं रह सकता, ठीक उसी प्रकार आत्मा को शुद्ध पवित्र, विकार-मुक्त किए बिना शरीर, मन और मस्तिष्क स्वस्थ नहीं रह सकते। रोग की उत्पत्ति का मूल कारण आत्मा में कर्मों का विकार ही होते हैं। संचित कर्मो के अनुरूप व्यक्ति को शरीर, मन, बुद्धि, परिवार, समाज, क्षेत्र, पद, प्रतिष्ठा और भौतिक साधनों की उपलब्धि होती है। रोग की अभिव्यक्ति भी पहले भावों अथवा विचारों में होती है। तत्पश्चात् मन में, उसके बाद शरीर के अन्दर एवं अन्त में बाह्य लक्षणों के रूप में प्रकट होती है। व्यक्ति के हाथ में तो मात्र सम्यक् पुरुषार्थ करना ही होता है। परन्तु सभी पुरुषार्थ करने वालों को एक जैसा परिणाम क्यों नहीं मिलता? उसके पीछे पूर्व संचित कर्मो का ही प्रभाव होता है।
✖9. आरोग्य एवं रोग शास्त्र में अन्तर
आरोग्य शास्त्र में तन, मन और चित्त तीनों का एक साथ उपचार होता है, अर्थात् समग्रता से विचार किया जाता है। शरीर की प्रतिकारात्मक शक्ति कम न हो, कर्म बन्धनों से आत्मा विकारी न बने, इस बात को प्राथमिकता दी जाती है जबकि रोग शास्त्र में रोग के मूल कारणों की अपेक्षा, उससे पड़ने वाले प्रभावों को शांत करने का प्रयास किया जाता है, जिससे रोगी को तुरन्त राहत कैसे मिले, मुख्य ध्येय होता है, भले ही उसके दुष्प्रभाव होते हों। आरोग्य शास्त्र पर आधारित है- ‘‘स्वावलंबी अहिंसक उपचार” और रोग शास्त्र पर आधारित होती है- ‘‘अहिंसा की उपेक्षा करने वाली परावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ।”
✖10. महावीर का स्वास्थ्य दर्शन
महावीर का दर्शन मौलिक रूप से स्वास्थ्य और चिकित्सा का दर्शन नहीं है, वह तो आत्मा से आत्मा का दर्शन है। परन्तु जब तक आत्मा मोक्ष को प्राप्त नहीं हो जाती तब तक, आत्मा शरीर के बिना रह नहीं सकती। शरीर की उपेक्षा कर आत्म-शुद्धि हेतु साधना भी नहीं की जा सकती। महावीर की दृष्टि में शरीर का आत्म-साधना हेतु महत्त्व होता है, इन्द्रियों के विषय भोगों के लिए नहीं। उनका अधिकांश चिन्तन आत्मा को केन्द्र में रख कर हुआ, परन्तु उन्होंने शरीर के निर्वाह हेतु केवल ज्ञान के आलोक में, जिस सम्यक् जीवन शैली का कथन किया, वह स्वतः मानव जाति के स्वास्थ्य का मौलिक शास्त्र बन गया। महावीर का स्वास्थ्य दर्शन पूर्ण रूप से मौलिक एवं वैज्ञानिक है। अहिंसा को आधार मानकर, अनेकान्त दृष्टि से उसमें स्वास्थ्य का विवेक पूर्ण सनातन सिद्धान्तों को स्वीकारते हुए चिंतन किया गया है। महावीर ने जहां एक तरफ प्राण और प्रर्याप्तियों के संयम को स्वास्थ्य का आधार कहा, वही दूसरी तरफ अशुभ कर्मो एवं आश्रवों से बचने की स्पष्ट प्रेरणा दी तथा उन्हें ही रोग हेतु जिम्मेदार बतलाया। सम्यक् प्रवृत्ति एवं संवर युक्त जीवन शैली का कथन कर, महावीर ने जनमानस को स्वस्थ जीवन जीने का राजमार्ग बतलाया। शरीर एवं रोगों की अपेक्षा रोग के मूल कारणों को दूर करने पर उन्होंने जो जोर दिया वह आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान के लिये चिन्तनीय है। अतः उनके दर्शन पर जितनी अधिक शोध की जायेगी उतने-उतने स्वास्थ्य के प्रति नये आयाम सामने आते जायेंगे। महावीर का दर्शन अपने आप में परिपूर्ण है। अतः उसकी उपेक्षा करने वाला आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान अपने आपको पूर्ण वैज्ञानिक मानने का दावा नहीं कर सकता।
✖11. शरीर से आत्मा का महत्त्व अधिक
जिस शक्ति विशेष द्वारा जीव जीवित रहता है अर्थात् जीवन जीने की शक्ति को प्राण कहते हैं। संसार में दो तत्व मुख्य होते हैं। प्रथम- जीव या आत्मा अथवा चेतना और दूसरा अजीव अथवा जड़ या अचेतन। इन तत्त्वों से ही सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की संरचना होती है। इसी आधार पर ऊर्जा को भी मोटे रूप में दो भागों में विभाजीत किया जा सकता है। पहली चैतन्य अथवा प्राण ऊर्जा और दूसरी भौतिक ऊर्जा। जिस ऊर्जा के निर्माण, वितरण, संचालन और नियन्त्रण हेतु चेतना की उपस्थिति आवश्यक होती है, उस ऊर्जा को प्राण ऊर्जा और बाकी सभी ऊर्जाओं को जड़ अथवा भौतिक ऊर्जा कहते हैं। जब तक शरीर में आत्मा अथवा चेतना का अस्तित्व रहता है, प्राण ऊर्जा क्रियाशील होती है। मानव जीवन का महत्व होता है, परन्तु उसकी अनुपस्थिति में अर्थात् मृत्यु के पश्चात् प्राण ऊर्जा के अभाव में मानव शरीर का कोई महत्त्व नहीं। अतः उसको जला अथवा, दफना कर नष्ट कर दिया जाता है।भौतिक विज्ञान प्रायः जड़ पर ही आधारित होता है। अतः उसकी सारी शोध एवम् चिन्तन जड़ पदार्थों तक ही सीमित रहती है। फलतः विज्ञान के इतने विकास के बावजूद आज के स्वास्थ्य वैज्ञानिक शरीर के किसी भी अवयव जैसे बाल, नाखून, कोशिकाएं, रक्त, वीर्य जैसे किसी भी अवयव को निर्माण करने में अपने आपको असमर्थ पा रहे हैं, जिसका चेतना युक्त शरीर में स्वयं निर्माण होता है।
✖12. प्राण ऊर्जा और उसके मूल स्रोत पर्याप्तियाँ (Bio Potential Energy Sourec)
जब मानव का जीव गर्भ में आता है तो, उसे अपने कर्मो के अनुसार आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा और मन रूपी छः पर्याप्तियाँ मूल ऊर्जा के स्रोत (Bio Potential Energy Sourec) प्राप्त होते हैं। प्रत्येक पर्याप्ति अपने-अपने गुणों के अनुसार पुद्गलों को आकर्षित कर मानव शरीर का विकास करती है। जिन्हें ये शक्तियाँ पूर्ण रूप से प्राप्त होती है, उनका सम्पूर्ण एवं संतुलित विकास होता है तथा जिन्हें ये पर्याप्तियाँ आंशिक रूप में प्राप्त होती हें उनका विकास आंशिक ही होता है।
श्वासोच्छवास पर्याप्ति से ही वायुमण्डल से श्वसन योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर जीव शरीर के लिये आवश्यक विशेष ऊर्जा में परिणित करता है। भाषा पर्याप्ति के कारण ही जीव भाषा योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर बोलने की योग्यता प्राप्त करता है। जिन जीवों में भाषा पर्याप्ति का अभाव होता है, वे मुंह होते हुए भी बोल नहीं सकते। मन पर्याप्ति के प्रभाव से जीव में मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर द्रव्य मन की सहायता से चिन्तन मनन करने की क्षमता प्राप्त होती है। जिन जीवों को मन पर्याप्ति प्राप्त नहीं होती, वे मनुष्य की भांति मनन, चिन्तन, अध्ययन आदि नहीं कर सकते। उपचार करते समय जब तक चेतना के विकास के इस क्रम की उपेक्षा होगी, निदान अपूर्ण और उपचार अस्थायी होगा।
✖13. शरीर में विभिन्न प्राणों के कार्य
पर्याप्तियाँ (Bio Potential Energy Sourec) प्राण ऊर्जा के अनुसार मुख्य रूप से दस भागों में रूपान्तरित हो मानव की समस्त गतिविधियों का संचालन करती हैं। जिन्हें प्राण भी कहते हैं। प्राण जीवन शैली को शक्ति प्रदान करता है। प्रत्येक प्राण अपने लिये आवश्यक पुद्गलों को आसपास के वातावरण से ग्रहण कर अपने-अपने कार्य कर सकते हैं।
कानों के द्वारा शब्दों को ग्रहण करने अथवा सुनने की शक्ति विशेष को श्रोत्र इन्द्रिय बल प्राण, आंखों के द्वारा देखने की शक्ति विशेष को चक्षु इन्द्रिय बल प्राण, नासिका द्वारा गंध ग्रहण करने की शक्ति विशेष को घ्राणेन्द्रिय बल प्राण, जीभ द्वारा स्वाद का अनुभव कराने की शक्ति विशेष को रसनेन्द्रिय बल प्राण, शरीर द्वारा ठण्डा-गरम, कोमल-कठोर, हल्का-भारी आदि स्पर्श का ज्ञान कराने वाली शक्ति विशेष को स्पशेंन्द्रिय बल प्राण, मन से चिंतन मनन करने की शक्ति को मनोबल प्राण, भाषा वर्गणा के पुद्गलों की सहायता से वाणी की अभिव्यक्ति की विशेष ऊर्जा वचन बल प्राण, शरीर के माध्यम से उठने-बैठने, हलन-चलन करने की विशेष शक्ति काय बल प्राण, श्वासोच्छवास वर्गणा के पुद्गलों की सहायता से श्वास लेने और बाहर निकालने की शक्ति विशेष श्वासोच्छवास बल प्राण तथा निश्चित समय तक निश्चित योनी में जीवित रहने की शक्ति विशेष आयुष्य बल प्राण कहलाती है। आयुष्य बल प्राण के अभाव में अन्य प्राणों का कोई अस्तित्व नहीं होता। आयुष्य बल प्राण का प्रमुख सहयोगी श्वासोच्छवास बल प्राण होता है। प्रत्येक व्यक्ति की एक निश्चित आयुष्य होती है। प्राणों की विविधता के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति के सुनने, देखने, चखने, सूंघने, चिंतन-मनन करने, वाणी की अभिव्यक्ति आदि अलग-अलग होती है। कभी-कभी भौतिक उपचारों से कान, नाक, चक्षु जीभ आदि इन्द्रियों के द्रव्य उपकरणों में उत्पन्न खराबी को तो दूर किया जा सकता है परन्तु उनमें प्राण ऊर्जा न होने से भौतिक उपचार सदैव सफल नहीं होते। इसी कारण सभी नेत्रहीनों को नेत्र प्रत्यारोपण द्वारा रोशनी नहीं दिलाई जा सकती। सभी बहरे उपकरण लगाने के बाद भी सुन नहीं सकते। मूर्ति में मानव की आंख लगाने के बाद उसमें देखने की शक्ति नहीं आ जाती। सारी प्राण शक्तियाँ आपसी सहयोग और समन्वय से कार्य करती है, परन्तु एक दूसरे का कार्य नहीं कर सकती। आंख सुन नहीं सकती। कान बोल नहीं सकता, नाक देख नहीं सकता इत्यादि।
✖14. संयम ही स्वस्थ जीवन का आधार
प्राण और पर्याप्तियों पर ही हमारा स्वास्थ्य निर्भर करता है। शरीर एवम् प्राण का परस्पर संबंध न जानने पर कोई भी व्यक्ति न तो प्राणों का अपव्यय अथवा दुरुपयोग ही रोक सकता है और न अपने आपको निरोग ही रख सकता है। आत्मिक आनन्द और सच्ची शांति तो प्राण ऊर्जा के सदुपयोग से ही प्राप्त होती है। यही प्रत्येक मानव के जीवन का सही लक्ष्य होता है। प्रतिक्षण हमारे प्राणों का क्षय हो रहा है। अतः हमारी सारी प्रवृत्तियां यथा संभव सम्यक् होनी चाहिये। पाँचों इन्द्रियों, मन, वचन का संयम स्वास्थ्य में सहायक होता है तथा उनका असंयम रोगों को आमन्त्रित करता है। हवा, भोजन और पानी से ऊर्जा मिलती है परन्तु उनका उपयोग कब, कैसे, कितना, कहाँ का सम्यक् ज्ञान और उसके अनुरूप आचरण आवश्यक होता है ? स्वाध्याय, ध्यान, कायोत्सर्ग भी ऊर्जा के स्रोत होते हैं, जिनका जीवन में आचरण आवश्यक होता है। प्राण ऊर्जा के सदुपयोग से शरीर स्वस्थ, मन संयमित, आत्मा जागृत और प्रज्ञा विकसित होती है।
✖15. उपचार में आत्मा की उपेक्षा हानिकारक
आत्मा को समझे बिना उसका मूल्य और महत्त्व कैसे पता लग सकता है? जीवन में उसकी उपेक्षा होना सम्भव है। आत्मा के विकार, मन, बुद्धि और वाणी को कैसे प्रभावित करते हैं? हमारे स्वास्थ्य को क्यों और कैसे बिगाड़ते हैं? आसानी से समझ में नहीं आ सकते। रोग के कारण बने रहने से पूर्ण स्वास्थ्य की भावना मात्र कल्पना बन कर रह जाती है। जिस प्रकार जड़ को सींचे बिना, मात्र फूल पत्ते को पानी पिलाने से वृक्ष सुरक्षित नहीं रह सकता, ठीक उसी प्रकार आत्मा को शुद्ध पवित्र, विकार-मुक्त किए बिना शरीर, मन और मस्तिष्क स्वस्थ नहीं रह सकते। रोग की उत्पत्ति का मूल कारण आत्मा में कर्मों का विकार ही होते हैं। संचित कर्मो के अनुरूप व्यक्ति को शरीर, मन, बुद्धि, परिवार, समाज, क्षेत्र, पद, प्रतिष्ठा और भौतिक साधनों की उपलब्धि होती है। रोग की अभिव्यक्ति भी पहले भावों अथवा विचारों में होती है। तत्पश्चात् मन में, उसके बाद शरीर के अन्दर एवं अन्त में बाह्य लक्षणों के रूप में प्रकट होती है। व्यक्ति के हाथ में तो मात्र सम्यक् पुरुषार्थ करना ही होता है। परन्तु सभी पुरुषार्थ करने वालों को एक जैसा परिणाम क्यों नहीं मिलता? उसके पीछे पूर्व संचित कर्मो का ही प्रभाव होता है।
✖16. आत्मा और शरीर का सम्बन्ध
आत्मा और शरीर अलग-अलग है। जब तक दोनों साथ-साथ में होते हैं, तभी तक स्वास्थ्य की समस्या होती है। दोनों के अलग होते ही शरीर की सारी गतिविधियाँ स्वतः समाप्त हो जाती हैं। शरीर की समस्त गतिविधियों के संचालन करने वाली चेतना (प्राण) और प्राण ऊर्जा भी दोनों से अलग होती है, जिसका निर्माण आत्मा और शरीर के सहयोग से होता है। बिना आत्मा अथवा शरीर प्राण और प्राण ऊर्जा का अस्तित्व नहीं होता। प्राण और प्राण ऊर्जा को भी प्रायः जनसाधारण एक ही समझते हैं, परन्तु दोनों अलग-अलग होते हैं। ऊर्जा जो जड़ है, जबकि प्राण में चेतना होती है। गुब्बारे में हवा भरने से उसमें प्राण नहीं आ जाते और न हवा निकालने से गुब्बारे के प्राण चले जाते हैं। ऊर्जा शरीर में बाहर से भीतर आती है या शरीर में श्वसन की प्रक्रिया से बनती है। जबकि प्राण शरीर में जन्म से विद्यमान होता है। प्राण की उपस्थिति में ही जीव प्राणी कहलाता है। प्राण हमारी आत्मा और स्थूल शरीर के बीच सेतु का कार्य करता है। आत्मा और शरीर का सारा संबंध प्राण के द्वारा ही होता हैं। जिस प्रकार बिजली से प्रकाश, गर्मी, वाहन आदि उपकरणों के माध्यम से अलग-अलग ऊर्जाएँ निर्मित होती है, ठीक उसी प्रकार आयुष्य बल प्राण और श्वसन प्राण के सहयोग से आँख में देखने, कान में सुनने, नाक में सुगन्ध लेने, जीभ में बोलने, मुँह में आहार करने, शरीर में स्पर्श ज्ञान की ऊर्जा उत्पन्न होती है। यदि हमारी कोई इन्द्रिय अथवा मन की प्राण ऊर्जा क्षीण हो जाती है तो व्यक्ति की वह इन्द्रिय अथवा मन निष्क्रिय हो जाता है। बाकी सभी इन्द्रियाँ अपना कार्य बराबर करती रहती है, परन्तु आयुष्य प्राण के बिना जीवन एक क्षण भी नहीं चल सकता।
✖17. स्वास्थ्य हेतु शरीर, मन और आत्मा का तालमेल आवश्यक
आत्मा अथवा उस चैतन्य के प्रति सजगता यानी आरोग्य के प्रति सजगता और उसका विस्मरण अर्थात् रोगों का निमन्त्रण। चैतन्य का मतलब आन्तरिक सजगता। यह वह चिकित्सक है जो सभी में उपस्थित हैं हमारी सारी शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का संचालन कत्र्ता यही तत्त्व है। हम जो आहार करते हैं उसका सप्त धातुओं में परिवर्तन इसी चैतन्य शक्ति द्वारा संपादित होता है। सच्चा चिकित्सक तो चैतन्य ही है। अतः अन्तः प्रेरणा की उपेक्षा न करें। चैतन्य को विकारों से मुक्त करें। मानसिक ऊर्जा का संग्रह होता है मन कि स्थिरता से, अर्थात् मौन, एकाग्रता एवं ध्यान से। आत्मिक ऊर्जा मिलती है अशुभ कर्मों की निर्जरा से। आत्मा की उपेक्षा करने वाला ज्ञान, बुद्धि, विवेक सम्यक् नहीं कहा जा सकता। जब तक स्वस्थ जीवन जीने के लिए शरीर, मन और आत्मा, तीनों की स्वस्थता आवश्यक होती है। तीनों एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं। तीनों के विकारों को दूर कर तथा सन्तुलित रख आपसी तालमेल द्वारा ही स्थायी स्वास्थ्य को जीया जा सकता है।
✖18. सही स्तर का उपचार आवश्यक
रोग का प्रारम्भ मस्तिष्क से होता है। मस्तिष्क में जैसे विचार, सोच, चिन्तन होता है, उसी के अनुरूप हमारे भाव, स्वभाव और संस्कारों का निर्माण होता है। जैसे संस्कार होते हैं, वैसे ही संवेगों के माध्यम से उनकी अभिव्यक्ति होती है। जैसे संवेग अथवा आवेग होते हैं, उन्हीं के अनुरूप संबंधित अंग और मेरेडियन को गतिशील होना पड़ता हैं और उसके अनुरूप बाह्य रूप से हमारा शरीर कार्य करता है। यदि सभी स्तर पर व्यक्ति संतुलित होता है तो उसे पूर्ण स्वस्थ कहते हैं। परन्तु इन चारों स्तरों पर जितना अधिक असंतुलन अथवा क्षमताओं और शक्ति का अपव्यय एवं दुरुपयोग होता है, तो रोग उत्पन्न होने लगते हैं। जिस स्तर पर रोग अथवा असंतुलन होता है, उसी स्तर पर उपचार करने से उपचार जल्दी हो जाता है।
✖19. आत्मा को विकारी बनाने वाले उपचार असजगता का सूचक
जो चिकित्सा पद्धतियाँ कर्म बन्धन में सहयोगी होती है, हिंसा को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष प्रोत्साहन देती है, महावीर ने उनका पूर्ण निषेध किया। रोग का मूल कारण अप्राकृतिक जीवन शैली, अनियन्त्रित, स्वछन्द, असयंमित-मन, वचन, काया की प्रवृत्तियाँ ही होती है। अतः महावीर ने प्राकृतिक स्वावलम्बी जीवन शैली और मन, वचन और काया के संयम को सर्वोच्य प्राथमिकता दी। जितनी ईमानदारी से उनका पालन किया जाता है, उतना ही व्यक्ति स्वस्थ होता है तथा पूर्व संचित असातावेदनीय कर्म के कारण रोग की स्थिति बन भी जाती है तो भी वह परेशान नहीं होता। वह शरीर को आत्मा से अलग, नष्ट और विध्वंसन होने वाला मानता है। अतः उसकी प्राथमिकता शरीर पर नहीं रहती। शरीर से ध्यान हटाते ही शरीर के दर्द, पीड़ा आदि कष्ट नहीं पहुँचा सकते। जहाँ रोग का आदर सत्कार नहीं होता, वहाँ रोग अधिक दिनों का मेहमान नहीं रह सकता। सभी रोगों का कारण पर्याप्तियों के असंयम से होने वाले प्राणों का असंतुलन ही होता है। पर्याप्तियों के संयम से शरीर में रोग उत्पन्न होने की संभावनाएँ काफी कम हो जाती है और यदि रोग की स्थिति हो भी जाती है तो पर्याप्तियों, के संयम से पुनः शीघ्र स्वास्थ्य को प्राप्त किया जा सकता है। यही महावीर के सिद्धान्तानुसार शरीर स्वास्थ्य का मूलाधार है।
✖20. उपचार हेतु क्रूरता एवं हिंसा अनुचित्त
स्वयं को तो एक पिन की चुभन भी सहन नहीं होती परन्तु शारीरिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए मूक, असहाय, बेकसूर जीवों का अनावश्यक विच्छेदन अथवा हिंसा करना, निर्मित दवाइयों के परीक्षणों हेतु जीव-जन्तुओं पर बिना रोक-टोक क्रूरतम हृदय विदारक यातनाएँ देना मानव की स्वार्थी एवं अहं मनोवृत्ति का प्रतीक है। भोजन में माँसाहार, अण्डों और मछलियों को पौष्टिक बतला कर प्रोत्साहन देना पाश्विकता का द्योतक है।
अमानवीय कार्यो से आत्मा दूषित होती है। विशेषकर हिंसक आचरण से। स्वार्थवश अपनी श्रेष्ठता, उच्चता, सबलता का लाभ उठा, अन्य प्राणियों के साथ हिंसा, क्रूरता, निर्दयता का आचरण करने का हमें अधिकार नहीं है। अतः आत्मिक पवित्रता के लिए ऐसे कृत्यों को प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष करने, करवाने और अनुमोदन करने से अपने मन, वचन और काया को अलग रखना सर्वाधिक आवश्यक है। दुर्भाग्य तो इस बात का है कि प्रायः अधिकांश चिकित्सा पद्धतियाँ उपचार में आत्मा के विकारों की न केवल उपेक्षा करती है, परन्तु कभी-कभी तो शरीर को स्वस्थ बनाने हेतु उन विकारों को बढ़ाते हुए भी संकोच नहीं करती। अतः सम्पूर्ण स्वास्थ्य की प्राप्ति के लिए अहिंसक आचरण अनिवार्य हैं। उपचार हेतु प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हिंसा को प्रोत्साहन कदापि उचित नहीं हो सकता?
प्रकृति के साथ असहयोग की सजा रोग है। अतः नीरोग रहने के लिये आवश्यक है कि यथासम्भव हम प्राकृतिक नियमों का पालन करें। श्वास कब, कितना, कैसे लेवें अथवा छोड़े? पानी कब, कितना, कैसे पीवें? खाना कब, कितना कैसे, कहां खावें? नियमित धूप सेवन का महत्त्व समझें एवं उसके अनुरूप ऊर्जा के मूल स्रोत्र हवा, पानी, भोजन एवं धूप का नियमित उपयोग करें। आवश्यक ध्यान, व्यायाम, स्वाध्याय, सद्-चिन्तन हों, हमारी प्रवृतियाँ सात्त्विक हों तथा प्राणी मात्र को सुख पहुँचाने वाली हों। प्रकृति का अटल सिद्धान्त है- दुःख देने से दुःख मिलता है और सुख देने से सुख। अतः यदि हम शान्त, सुखी स्वस्थ रहना चाहते हैं तो प्राणी मात्र के प्रति हमें दया, करूणा, संवेदना का भाव विकसित करना होगा। अपने सुख एवं स्वास्थ्य के लिये दूसरों को कष्ट पहुँचाकर हम लाख प्रयास करने के बावजूद पूर्ण स्वस्थ नहीं रह सकते। इन नियमों की उपेक्षा कर अपने आपको स्वस्थ रखने की कल्पना करना, आग लगाकर शीत प्राप्त करने के समान होगा। फूटे हुए घड़े को सात समुद्रों का पानी भी भरा हुआ नहीं रख सकता। मन के लंगड़े व्यक्ति को स्वर्ग के हजारों देवता भी नहीं चला सकते, ठीक उसी प्रकार जब तक चिकित्सा में साधन, साध्य एवं सामग्री की पवित्रता नहीं होगी, तब तक हमें दीर्घकाल तक शारीरिक स्वस्थता भी प्राप्त नहीं हो सकती। आध्यात्मिक एवं मानसिक स्वस्थता का तो प्रश्न ही नहीं। अपने-आपको स्वस्थ रखने की भावना वालों को सन्तुलन के इस सिद्धान्त का पालन करना आवश्यक है।
उपचार में प्रत्यक्ष या परोक्ष हिंसा पुराने कर्ज को चुकाने के लिए ऊँचे ब्याज पर नये कर्ज को लेने के समान नासमझी है।
✖21. रोग हमारा मित्र
रोग के सम्बन्ध में हमारी गलत धारणाएँ है। दर्द अथवा रोग के अधिकांश लक्षण हमें सजग करते हैं। अपने कत्र्तव्य बोध हेतु चिन्तन करने की प्रेरणा देते हैं। हमें चेतावनी देते हैं, कि हम अपने आपका निरीक्षण कर, अपने आपको बदले ताकि पीड़ा मुक्त , तनाव मुक्त जीवन जी सकें। हम स्वप्न में जी रहे हैं। यानी बेहोशी में हैं। दर्द अथवा रोग के अन्य संकेत उस बेहोशी को भंग कर हमें सावधान करते हैं परन्तु सही दृष्टि न होने से हमने, उनको शत्रु मान लिया है। रोगी शरीर की आवाज सुनना और भाषा को समझना नहीं चाहता। शरीर रक्त, मांस, मज्जा, हड्डियों, कोशिकाओं के निर्माण जैसी अपनी अधिकांश आवश्यकताएँ स्वयं पूर्ण करता है। हृदय, फेफड़े, गुर्दे आदि अंग स्वयं बनाता है। उस शरीर में रोग से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता न हो कैसे संभव है? वास्तव में शरीर में स्वयं स्वस्थ होने की क्षमता है। रोग, दर्द, पीड़ा हमें जागृत करता है, चेताता है परन्तु हम उसकी बात नहीं सुनते। उसकी अभिव्यक्ति को समझने का प्रयास नहीं करते। उसका कारण स्वयं में नहीं ढूंढते तथा दवाओं द्वारा उसको दबाकर बड़े प्रसन्न होते हैं। उपचार स्वयं के पास है और खोजता है बाजार में डाॅक्टर और दवाइयों के द्वारा। फलतः दवा द्वारा रोग के कारणों को दबा कर खुश होने का असफल प्रयास करता है। रोगी जितना डाॅक्टर, दवा अथवा अन्य शुभचिन्तकों, अधूरे ज्ञान वाले सलाहकारों पर विश्वास करता है, उतना अपने आप पर एवं अपनी क्षमताओं पर विश्वास नहीं करता। यही तो सबसे बड़ा मिथ्यात्व है। प्रकृति रोग के द्वारा यह दर्शाती है कि हम गलती कर रहे हैं। प्रारम्भिक अवस्था में प्रकट होने वाले रोग के लक्षण हमारे मित्र होते हैं। हमें हमारी असजगता के कारण भविष्य में होने वाले दुष्परिणामों की चेतावनी देकर सचेत करते हैं। यह तो हमारे शारीरिक प्रक्रिया का एक उपकारी एवं हितैषी कार्य है जिसमें हमें सहयोग करना चाहिए। यह कोई शत्रुता पूर्ण कार्य नहीं जिसे रोका जाए, विरोध किया जाए अथवा जिसे नष्ट किया जाए। परन्तु अज्ञानवश आज हम इन संकेतों को दुश्मन मान दवाइयों द्वारा उनको दबा कर अपने आपको बुद्धिमान समझने की भूल कर रहे हैं। कचरे को दबाकर अथवा छिपाकर रखने से उसमें अधिक सड़ांध, बदबू अथवा अवरोध की समस्या पैदा होगी। दीमक लगी लकड़ी पर रंग रोगन करने से बाहरी चमक भले ही आ जावे, परन्तु मजबूती नहीं आ सकती। औषधियों के माध्यम से इस सफाई अभियान को रोकने से तो विषैले अथवा दूषित तत्त्वों के शरीर के अन्दर रुके रहने से धीरे-धीरे शरीर की कार्य प्रणाली में अवरोध बढ़ता जाता है। जो भविष्य में विभिन्न गम्भीर रोगों को जन्म देने का कारण बनते हैं।
✖22. अच्छे स्वास्थ्य के मापदण्ड - स्वस्थ कौन?
स्वस्थ का अर्थ होता है स्व में स्थित हो जाना। अर्थात् स्वयं पर स्वयं का नियन्त्रण, पूर्ण अनुशासन एवं रोग-मुक्त जीवन। स्वास्थ्य का अर्थ होता है-विकारमुक्त अवस्था। रोग का तात्पर्य विकारयुक्त अवस्था यानी जितने ज्यादा विकार उतने ज्यादा रोग। जितने विकार कम उतना ही स्वास्थ्य अच्छा। विकार का मतलब अनुपयोगी, अनावश्यक, व्यर्थ, विजातीय तत्त्व होता है। जब ये विकार शरीर में होते हैं तो शरीर रोगी बन जाता है परन्तु जब ये विकार मन, भावों और आत्मा में होते हैं तो क्रमशः मन, भाव और आत्मा विकारी अथवा अस्वस्थ कहलाती हैं। स्वस्थता तन, मन और आत्मोत्साह के समन्वय का नाम है। जब शरीर, मन, इन्द्रियाँ और आत्मा ताल-से-ताल मिला कर सन्तुलन से कार्य करते हैं, तब ही अच्छा स्वास्थ्य कहलाता है। इस स्थिति में जब शरीर की समस्त प्रणालियाँ एवं सभी अवयव स्वतन्त्रतापूर्वक अपना-अपना कार्य करें, किसी के भी कार्य में, किसी भी प्रकार का अवरोध, आलस्य अथवा निष्क्रियता न हों तथा न उनको चलाने हेतु किसी बाह्य दवा अथवा उपकरणों की आवश्यकता पड़े। मन और पाँचों इन्द्रियाँ सशक्त हों, स्मरण शक्ति अच्छी हों, क्षमताओं का ज्ञान हों, विवेक जागृत हों, लक्ष्य सही और विकासोन्मुख हों। जीवन स्थायी आनन्द, शान्ति, प्रसन्नता बढ़ाने वाला हों, न कि तनाव, चिन्ता, निराशा, भय, अनैतिकता, हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार, तृष्णा आदि दुःख के कारणों को बढ़ाने वाला हों। प्राथमिकताएँ सही हों एवं उसके अनुरूप संयमित, नियमित, नियन्त्रित जीवन-चर्या हों। आवश्यक की क्रियान्विति और अनावश्यक की उपेक्षा का स्वविवेक हों, मन का चिन्तन और आचरण सम्यक् एवं संयमित हों, मन में बेचैनी न हों, इन्द्रियों की विषय-विकारों में आसक्ति न हों, समस्त प्रवृत्तियाँ सहज और स्वाभाविक हों, अस्वाभाविक न हों अर्थात् जिसका पाचन और श्वसन बराबर हों, सन्तुलित हों, अनुपयोगी अनावश्यक विजातीय तत्त्वों का शरीर से विसर्जन सही हों, भूख प्राकृतिक लगती हों, निद्रा स्वाभाविक आती हों, पसीना गन्ध-हीन हों, त्वचा मुलायम हों, बदन गठीला हों। सीधी कमर, खिला हुआ चेहरा और आँखों में तेज हो। नाड़ी, मज्जा, अस्थि, प्रजनन, लासिका, रक्त परिभ्रमण आदि तंत्र शक्तिशाली हों तथा अपना कार्य पूर्ण क्षमता से करने में सक्षम हों। जो निस्पृही तथा निरंहकारी हो। जो आत्म-विश्वासी, दृढ़ मनोबली, सहनशील, धैर्यवान, निर्भय, साहसी और जीवन के प्रति उत्साही हो। जिसके सभी कार्य समय पर होते हों तथा जीवन नियमबद्ध हो। जो पूर्ण स्वस्थ एवं संतुलित होता है, उसके शरीर से स्वाभाविक सुगंध आती है, स्वास्थ्य, मन, वचन और काया के संतुलित समन्वय का नाम है, जो ऐसी वस्तु नहीं है जिसे बाजार से खरीदा जा सके अथवा किसी से उधार लिया जा सके या चुराया जा सके।
आत्मा के बिना न तो शरीर का अस्तित्व होता है, न मन व वाणी ही चेतना की अभिव्यक्ति के माध्यम होते हैं। अतः जब तक आत्मा अपनी शुद्धावस्था को प्राप्त नहीं होती है, हम किसी न किसी रोग से अवश्य पीड़ित होते हैं अर्थात् निरोग नहीं बन सकते। शारीरिक रूप से यदि शरीर तंत्र अपने लिये आवश्यक एवं वाछिंत तत्त्वों का पुनःनिर्माण तथा अवाछिंत और विजातीय तत्त्वों का निष्कासन का कार्य सुचारू रूप से करता रहे तो मनुष्य निरोग एवं स्वस्थ रह कर दीर्घायु प्राप्त कर सकता है।
वास्तव में पूर्ण स्वस्थता के मापदण्ड तो यही होते हैं। जितने-जितने अंशों में उपरोक्त तथ्यों की प्राप्ति होती है उसी अनुपात में व्यक्ति स्वस्थ होता है। इसके विपरीत स्थिति पैदा होने पर अपने आपको स्वस्थ मानना अथवा पूर्ण स्वस्थ बनाने का दावा करना न्याय संगत नहीं माना जा सकता। प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं की स्थिति का अवश्य आंकलन करना चाहिए। जो-जो बातें उसके स्वयं के नियन्त्रण में होती है, उसके अनुरूप अपनी जीवनशैली बनाने का प्रयास करना चाहिए।
जीवन में सभी को सदैव सभी प्रकार की अनुकूलताएँ प्रायः नहीं मिलती परन्तु अधिकांश प्रतिकूल परिस्थितियों को सकारात्मक चिन्तन, मनन एवं सम्यक् आचरण द्वारा अपने अनुकूल बनाया जा सकता है, यही स्वास्थ्य का मूल सिद्धान्त और स्वस्थ जीवन की आधारशिला होती है। अच्छा स्वास्थ्य ऐसी वस्तु नहीं है जिसे बाजार से खरीदा जा सके अथवा किसी से उधार में लिया जा सके, या चुराया जा सके। वास्तव में पूर्ण स्वस्थता के मापदण्ड तो यही होते हैं। स्वस्थता की स्थिति प्राप्त करने के लिये शारीरिक मानसिक एवं आध्यात्मिक सन्तुलन आवश्यक है, परन्तु आज हमारा सारा चिन्तन एवं प्रयास शारीरिक स्वास्थ्य तक ही सीमित हो रहा है।
✖23. रोग क्यों?
अज्ञान सभी दुःखों का मूल है। स्वास्थ्य संबंधी सामान्य प्राकृतिक सनातन नियमों का ज्ञान न होना और उसके विपरीत आचरण करना, अधिकांश रोगों का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कारण होता है। प्रकृति किसी भी ज्ञानी या अज्ञानी को नियम विरूद्ध कार्य करने के लिए क्षमा नहीं करती। वहाँ अज्ञानता का कोई बहाना नहीं चलता। अग्नि, अग्नि को स्पर्श करने वाले को जलायेगी। यह उसका स्वभाव है।
रोग होने के अनेक कारण होते हैं। जैसे पूर्व अथवा इस जन्म के संचित असाता वेदनीय कर्मों का उदय, पैतृक संस्कार और वंशानुगत रोग, आकस्मिक दुर्घटनाएँ, आस-पास का बाह्य प्रदूषित वातावरण, मौसम का परिवर्तन एवं उसके प्रतिकूल आचरण, तनाव पैदा करने वाली पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, अनावश्यक सामाजिक कुरीतियों एवं रूढ़़ीवादी धार्मिक अनुष्ठानों का पालन (कुर्बानी, पशुबलि, दुव्र्यसनों का सेवन), स्वास्थ्य विरोधी सरकारी नीतियाँ, स्वास्थ्य विरोधी विज्ञापन, टीकाकरण जीवन निर्वाह हेतु स्वास्थ्य विरोधी प्रदुषित अथवा अप्राकृतिक व्यावसायिक वातावरण, आर्थिक कठिनाईयाँ, अनियत्रित अपव्यय, बदनामी, प्राकृतिक आपदाओं का प्रकोप, असंयम, दुव्यर्सनों का सेवन, अकरणीय पाश्विक वृत्तियाँ, मिलावट एवं रसायनिक खाद और कीटनाशक दवाईयों से प्रभावित उपलब्ध आहार सामग्री, असाध्य एवं संक्रामक रोगों के प्रति प्रारम्भ में रखी गई उपेक्षावृत्ति, अनावश्यक दवाओं का सेवन तथा शारीरिक परीक्षण, इलैक्ट्रोनिक किरणें जैसे- एक्स रे, टी.वी., सोनोग्राफी, कम्प्यूटर, सी.टी. स्केनिंग, मोबाइल फोन एवं अन्य प्रकार की आणविक तरंगों का दुष्प्रभाव, प्राण ऊर्जा का दुरुपयोग या अपव्यय, आराम, निद्रा, विश्राम का अभाव, क्षमता से अधिक श्रम करना, मल-मूत्र को रोकना, अति भोजन, अति निद्रा, शरीर में रोग प्रतिकारात्मक शक्ति का क्षीण होना, कोशिकाओं का निष्क्रिय होना एवं नवीन कोशिकाओं का सजृन न होना, गलत अथवा अधूरे उपचार तथा दवाओं का दुष्प्रभाव, वृद्धावस्था के कारण इन्द्रियों का शिथिल हो जाना। प्रमाद, आलस्य, अविवेक, अशुभ चिन्तन, आवेग, अज्ञान, असजगता, हिंसक, मायावी, अनैतिक जीवन शैली, जिससे सदैव तनावग्रस्त एवं भयभीत रहने की परिस्थितियाँ बनना, भीड़ एवं भ्रामक विज्ञापनों पर आधारित जीवनशैली आदि रोगों के मुख्य कारण होते हैं।
कभी-कभी बहुत छोटी लगने वाली हमारी गलती अथवा उपेक्षावृत्ति भी भविष्य में रोग का बहुत बड़ा कारण बन जीवन की प्रसन्नता-आनन्द सदैव के लिए समाप्त कर देती है। मृत्यु के लिए सौ सर्पो के काटने की आवश्यकता नहीं होती। एक सर्प का काटा व्यक्ति भी कभी-कभी मर सकता है। आज जब तक रोग के लक्षण बाह्य रूप से प्रकट न हों, हमें परेशान नहीं करते, न तो हमें रोग का पता लगता है और न सभी रोग आधुनिक परीक्षणों की पकड़ में ही आते हैं। अतः हम रोग को रोग ही नहीं मानते। जब निदान ही अपूर्ण हो तो ऐसे उपचार कैसे पूर्ण और स्थायी रोग मुक्ति का दावा कर सकते हैं? रोग में तुरन्त राहत दिलाना ही उपचार का ध्येय नहीं होता, जिस पर प्रत्येक बुद्धिमान, सजग, चिन्तनशील प्राणी का चिंतन अपेक्षित है।
परन्तु आज स्वास्थ्य का परामर्श देते समय अथवा रोग की अवस्था में निदान और उपचार करते समय प्रायः अधिकांश चिकित्सक, व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले उपरोक्त प्रभावों का समग्रता से विश्लेषण नहीं करते।
✖24. नकारात्मक विचार रोगों का मुख्य कारण
रोग का प्रारम्भ मस्तिष्क से होता है। मस्तिष्क में जैसे विचार, सोच, चिन्तन होता है, उसी के अनुरूप हमारे भाव, स्वभाव और संस्कारों का निर्माण होता है। जैसे संस्कार होते हैं, वेसे ही संवेगों के माध्यम से उनकी अभिव्यक्ति होती है। जैसे संवेग अथवा आवेग होते हैं, उन्हीं के अनुरूप संबंधित अंग और मेरेडियन को गतिशील होना पड़ता हैं और उसके अनुरूप बाह्य रूप से हमारा शरीर कार्य करता है। यदि सभी स्तर पर व्यक्ति संतुलित होता है तो उसे पूर्ण स्वस्थ कहते हैं तथा चारों स्तरों पर जितना अधिक असंतुलन अथवा क्षमताओं और शक्ति का अपव्यय एवं दुरूपयोग होता है, तो रोग उत्पन्न होने लगते हैं। जिस स्तर का रोग अथवा असंतुलन होता है, उसी स्तर पर उपचार करने से उपचार जल्दी हो जाता है। प्रत्येक स्तर पर असंतुलन अन्य स्तरों को भी असंतुलित करता है। शरीर का तालमेल समाप्त होने लगता है। उपचार रोग के जितने प्राथमिक अथवा मूल स्तर पर होता है, उतना अधिक स्थायी और प्रभावशाली होता है। जैसे- तनाव, क्रोध, भय आदि के आवेगों से रक्तचाप होता है। अतः यदि उन्हीं आवेगों को दूर कर दिया जाये तो रोग के कारण ही नष्ट हो जाते हैं।
✖25. रोग कब?
जैसे अग्नि के सम्पर्क से पानी उबलने लगता है परन्तु जैसे ही पानी को अग्नि से अलग करते है, धीरे-धीरे वह स्वतः ही ठंडा हो जाता है। शीतलता पानी का स्वभाव है, गर्मी नहीं। पानी को वातावरण के अनुरूप रखने के लिए किसी बाह्य आलम्बन की आवश्यकता नहीं होती। उसी प्रकार शरीर में हड्डियों का स्वभाव कठोरता होता है परन्तु किसी कारणवश कोई हड्डी नरम हो जाए उससे लचीलापन आ जाए तो रोग का कारण बन जाती है। मांस-पेशियों का स्वभाव लचीलापन है, परन्तु उसमें किसी कारणवश कठोरता आ जाए, गांठ हो जाए अथवा विजातीय तत्वों के जमाव के कारण अथवा आवश्यक रसायनों के अभाव के कारण यदि शरीर के किसी भाग की मांसपेशियों में लचीलापन समाप्त हो जाए अथवा क्षमतानुसार न हो तो रोग का कारण बन जाती है। शरीर का तापक्रम 98.4 डिग्री फारेनहाइट रहना चाहिए, परन्तु किसी कारणवश कम या ज्यादा हो जाए तो शरीर में रोग के लक्षण प्रकट हो जाते हैं। रक्त सारे शरीर में आवश्यकतानुसार ऊर्जा पहुँचाने का कार्य अबाध गति से करता है। अतः उसके सन्तुलित प्रवाह हेतु आवश्यक गर्मी एवं निश्चित दबाव आवश्यक होता है, परन्तु यदि हमारी अप्राकृतिक जीवन शैली से रक्त का बराबर निर्माण न हों अथवा दबाव आवश्यकता से कम या ज्यादा हो जाए, तो सारे शरीर में प्राण ऊर्जा का वितरण प्रभावित हो जाता है। रक्त नलिकाओं के फैलने अथवा सिकुड़ने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती है अर्थात् अपना स्वरूप बदल देती है अतः रोग की स्थिति पैदा हो जाती है।
✖26. क्रोध का रोग से सम्बन्ध
क्रोध से शरीर और मस्तिष्क गरम हो जाता है। स्नायु संस्थान (Nervous System) पर तनाव आता है और वे दुर्बल होने लगते हैं। जब स्नायु क्रोध से उत्पन्न तनाव को सह नहीं पाते, तो हाथ-पैर काँपने लगते हैं, शरीर थरथराने लगता है, आँखे लाल हो जाती है। शरीर में पित्त का प्रकोप बढ़ने से उससे सम्बन्धित एसिडिटी, अल्सर, अपच, भूख न लगना, अनिद्रा, मानसिक तनाव, पाचन संस्थान के अंगों में जलन आदि रोग होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती है। हृदय के रोगी को तो क्रोध के कारण दिल का दौरा भी पड़ सकता है तथा कभी-कभी अचानक रक्त का दबाव बढ़ने से मस्तिष्क की स्नायु से पक्षाघात (लकवा) तक हो सकता है। श्वास तीव्र गति से चलने लगती है। रक्त विशाक्त हो जाता है, जो विभिन्न रोगों का मुख्य कारण बनते हैं। दिनभर में अर्जित शक्ति क्षणभर के क्रोध से नष्ट हो जाती है। क्रोध से हम किसी को दबा सकते हैं, सुधार नहीं सकते। क्रोधी व्यक्ति का स्वभाव चिड़चिड़ा एवं चेहरा विकृत हो जाता है। अतः स्वस्थ रहने की कामना करने वालों को क्रोध से यथा सम्भव बचने का प्रयास करना चाहिए। क्योंकि क्रोधी व्यक्ति के क्रोध छोड़े बिना कोई भी उपचार स्थायी एवं प्रभावशाली नहीं हो सकता।
✖27. अधिकांश रोगों की जड़ : मन और मस्तिष्क
असंयमी व्यक्ति के साथ रोग उसी प्रकार लगे रहते हैं, जिस प्रकार धुँए के साथ अग्नि। प्रायः कोई भी रोग ऐसा नहीं, जिसकी जड़ मस्तिष्क में न हो और जो असंयम, कुण्ठाओं, बुरी भावनाओं, दुर्वासनाओं से वर्तमान अथवा भूतकाल में पोशित न हुआ हो? मानसिक स्वास्थ्य और मनोबल दोनों जुड़े हुए है। यदि मनोबल टूटता है तो मन का स्वास्थ्य भी खराब हो जाएगा। जिसका मन शुद्ध, निर्विकार और निरोगी होता है, उसके पाचन, स्नायु आदि संस्थान भी सशक्त होते हैं। उनका रक्त इतना सक्षम और शुद्ध होता है कि शरीर में उत्पन्न, विद्यमान तथा आने वाले सभी प्रकार के रोगों को परास्त एवं नष्ट करने की प्रतिरोधक क्षमता रखता है। अतः मानसिक निर्मलता से बढ़ कर न तो कोई शक्तिशाली दवा ही होती है और न ही रोग निवारक अमोघ औषधि।
✖28. मानव शरीर की विशेषताएँ
मानव शरीर की संरचना विश्व का एक अद्भूत आश्चर्य है। उसके रहस्य को दुनिया का बड़े से बड़ा डाॅक्टर और वैज्ञानिक पूर्ण रूप से समझने में असमर्थ है। मस्तिष्क जैसा सुपर कम्प्यूटर, हृदय एवं गुर्दे जैसा रक्त शुद्धिकरण यंत्र, आमाशय, तिल्ली, लीवर जैसा रासायनिक कारखाना, आँख के समान कैमरा, कान के समान श्रवण यंत्र, जीभ के समान वाणी एवं स्वाद यंत्र, लिम्फ प्रणाली जैसी नगर निगम की सफाई व्यवस्था, नाड़ी तंत्र के समान मीलों लंबी संचार व्यवस्था, अन्तःस्रावी ग्रन्थियों के समान सन्तुलित, नियंत्रित, संयमित, न्यायिक, प्रशासनिक व्यवस्था, प्रकाश से भी तेज गति वाला मन इत्यादि अन्यत्र निर्मित उपकरणों अथवा अन्य चेतनाशील प्राणियों में एक साथ मिलना असम्भव हैं। क्या हमने कभी कल्पना भी कि के शरीर के ऊपर यदि त्वचा न होती तो हमारी कैसी स्थिति होती?
शरीर अपने लिए आवश्यक रक्त, मांस, मज्जा, हड्डियाँ, वीर्य आदि तत्वों का निर्माण चेतना के सहयोग से स्वयं करता है, जिसे अन्यत्र प्रयोगशालाओं में बनाना अभी तक सम्भव नहीं हुआ है। हमारे शरीर में पसीने द्वारा त्वचा के छिद्रों से पानी तो आसानी से बाहर जा सकता है, परन्तु पानी में त्वचा को रखने से, उन छिद्रों से पानी भीतर नहीं जा सकता। प्रत्येक शरीर का कुछ न कुछ वजन होता है, परन्तु चलते-फिरते शायद ही किसी को अपना वजन अनुभव होता है। हमारे शरीर का तापक्रम साधारणतयाः 98.4 डिग्री फारेहनाइट होता है, भले ही बाहर कितनी ही सर्दी अथवा गर्मी क्यों न हो? चाहें, बर्फीले दक्षिणी अथवा उत्तरी ध्रुव पर जाए अथवा गर्मी में सहारा मरूस्थल जैसे गर्म स्थानों पर, शरीर का तापक्रम 98.4 डिग्री फारेहनाइट ही रहता है। हम देखते हैं तब कभी आंधी या तेज हवाएँ चलती हैं, तब हल्के पदार्थ एक स्थान से दूसरे स्थान पर उड़कर चले जाते हैं। परन्तु हलन-चलन, उठने-बैठने एवं दौड़ने के बावजूद शरीर की कोई भी नाड़ी अपना स्थान नहीं छोड़ती। यदि हम शीर्षासन करें तो हृदय या अन्य कोई अंग अपना स्थान नहीं छोड़ता। शरीर के सभी अंग, उपांग, नाड़ियाँ, हड्डियाँ, हलन-चलन के बावजूद कैसे अपने स्थान पर स्थिर रहते हैं? वास्तव में आश्चर्य है। जिस शरीर में इतने अमूल्य उपकरण हो, उस शरीर में अपने आपको स्वस्थ रखने की व्यवस्था न हो, कैसे सम्भव है?
✖29. शरीर में स्वयं को स्वस्थ रखने की क्षमता होती है
प्रत्येक अच्छे स्वचलित यंत्र में खतरा उपस्थित होने पर स्वतः उसको ठीक करने की व्यवस्था प्रायः होती है। जैसे बिजली के उपकरणों के साथ ओवरलोड, शार्ट सर्किट, अर्थ फाल्ट आदि से सुरक्षा हेतु प्युज, रीलें आदि होते हैं। प्रत्येक वाहन में ब्रेक होता है ताकि आवश्यकता पड़ने पर वाहन की गति को नियंत्रित किया जा सके। ठीक उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में जो दुनियाँ की सर्वश्रेष्ठ स्वचलित, स्वनियंत्रित मशीन होती है, उसमें रोगों से बचने की सुरक्षात्मक व्यवस्था न हों तथा रोग होने की अवस्था में पुनः स्वस्थ बनाने की व्यवस्था न हों, यह कैसे संभव हो सकता है?
शरीर में हजारों रोग होते हैं, वे सभी यंत्रों और रासायनिक परीक्षणों की पकड़ में नहीं आ सकते। जो उनकी पकड़ में आ जाते हैं, उनको सभी डाॅक्टर समझ नहीं सकते। सभी अपना अलग-अलग निष्कर्ष निकाल निदान करते हैं। अतः दवाओं द्वारा उपचार आंशिक ही होता है। इसी कारण बहुत से व्यक्ति उपचार करवाने के बावजूद पुनः स्वस्थ नहीं होते, जबकि, चन्द रोगी बिना उपचार करवाए, प्राकृतिक नियमों का पालन कर स्वतः स्वस्थ हो जाते हैं। शरीर में रोग के अनुकूल दवा बनाने की क्षमता होती है और यदि उन क्षमताओं को बिना किसी बाह्य दवा के विकसित कर दिया जाए तो उपचार अधिक प्रभावशाली , स्थायी एवं भविष्य में पड़ने वाले दुष्प्रभावों से रहित होता है। दवा और चिकित्सक तो मात्र मार्गदर्शक अथवा सहायक की भूमिका निभा सकते हैं। अतः स्वस्थ रहने के लिए स्वयं की सजगता, भागीदारी, जीवनचर्या एवं गतिविधियों पर पूर्ण संयम, अनुशासन और नियंत्रण आवश्यक होता है।
✖30. शरीर में रोग के अनुकूल दवा बनाने की क्षमता होती है
शरीर में हजारों रोग होते हैं, वे सभी यंत्रों और रासायनिक परीक्षणों की पकड़ में नहीं आ सकते। जो उनकी पकड़ में आ जाते हैं, उनको सभी डाॅक्टर समझ नहीं सकते। सभी अपना अलग-अलग निष्कर्ष निकाल निदान करते हैं। अतः दवाओं द्वारा उपचार आंशिक ही होता है। इसी कारण बहुत से व्यक्ति उपचार करवाने के बावजूद पुनः स्वस्थ नहीं होते, जबकि, चन्द रोगी बिना उपचार करवाए, प्राकृतिक नियमों का पालन कर स्वतः स्वस्थ हो जाते हैं। शरीर में रोग के अनुकूल दवा बनाने की क्षमता होती है और यदि उन क्षमताओं को बिना किसी बाह्य दवा के विकसित कर दिया जाए तो उपचार अधिक प्रभावशाली , स्थायी एवं भविष्य में पड़ने वाले दुष्प्रभावों से रहित होता है। दवा और चिकित्सक तो मात्र मार्गदर्शक अथवा सहायक की भूमिका निभा सकते हैं। अतः स्वस्थ रहने के लिए स्वयं की सजगता, भागीदारी, जीवनचर्या एवं गतिविधियों पर पूर्ण संयम, अनुशासन और नियंत्रण आवश्यक होता है।
✖31. स्वास्थ्य हेतु चिकित्सा के विभिन्न दृष्टिकोण
रोग की अवस्था में आयुर्वेद के सिद्धान्तानुसार शरीर में वात, पित्त और कफ का असन्तुलन होने लगता है। आधुनिक चिकित्सक को मल, मूत्र, रक्त आदि के परीक्षणों में रोग के लक्षण और शरीर में रोग के कीटाणुओं तथा वायरस दृष्टिगत होने लगते हैं। प्राकृतिक चिकित्सक ऐसी स्थिति से शरीर के निर्माण में सहयोगी पंच तत्त्व-पृथ्वी, जल, हवा, अग्नि और आकाश का असन्तुलन अनुभव करते हैं। चीनी एक्यूपंक्चर एवं एक्यूप्रेशर के विशेषज्ञों के अनुसार शरीर में यिन-यांग का असंतुलन हो जाता है। एक्यूप्रेशर के प्रतिवेदन बिन्दुओं की मान्यता वाले थेरेपिष्टों को व्यक्ति की हथेली और पगथली में विजातीय तत्त्वों का जमाव प्रतीत होने लगता है। सुजोक बायल मेरेडियन सिद्धान्तानुसार रोगी के शरीर में पंच ऊर्जाओं (वायु, गर्मी, ठण्डक, नमी और शुष्कता) का आवश्यक सन्तुलन बिगड़ने लगता है। चुम्बकीय चिकित्सक शरीर में चुम्बकीय ऊर्जा का असन्तुलन अनुभव करते हैं। ज्योतिष शास्त्री ऐसी परिस्थिति का कारण प्रतिकूल ग्रहों का प्रभाव बतलाते हैं। आध्यात्मिक योगी ऐसी अवस्था का कारण पूर्वार्जित अशुभ असाता वेदनीय कर्मों का उदय मानते हैं। होम्योपेथ और बायोकेमिस्ट की मान्यतानुसार शरीर में आवश्यक रासायनिक तत्त्वों का अनुपात बिगड़ने से ऐसी स्थिति उत्पन्न होने लगती है। आहार विशेषज्ञ शरीर में पौष्टिक तत्त्वों का अभाव बतलाते हैं। शरीर में अम्ल-क्षार, ताप-ठण्डक का असन्तुलन बढ़ने लगता है। कहने का आशय यही है कि विभिन्न चिकित्सा पद्धतियाँ अपने-अपने सिद्धान्तों के अनुसार शरीर में इन विकारों की उपस्थिति को रोग अथवा अस्वस्थता का कारण मानते हैं। जो जैसा कारण बतलाता है, उसी के अनुरूप उपचार और परहेज रखने का परामर्श देते हैं। सभी को आंशिक सफलताएँ भी प्राप्त हो रही है तथा सफलताओं एवं अच्छे परिणामों के लम्बे-लम्बे दावे अपनी-अपनी चिकित्सा पद्धतियों के सुनने को मिल रहे हैं। विज्ञान के इस युग में किसी पद्धति को बिना सोचे-समझे अवैज्ञानिक मानना, न्याय-संगत नहीं कहा जा सकता।
✖32. चिकित्सा हेतु चिकित्सकों का समग्र दृष्टिकोण आवश्यक
चिकित्सा के क्षेत्र में आधुनिक चिकित्सकों की सोच आज भी प्रायः शरीर तक ही सीमित होती है। मन एवं आत्मा के विकारों को दूर कर मानव को पूर्ण स्वस्थ बनाना उनके सामथ्र्य से परे है। फलतः आधुनिक चिकित्सा में अहिंसा-हिंसा, करणीय-अकरणीय, न्याय-अन्याय, वर्जित-अवर्जित, भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक उपेक्षित एवं गौण होता है। प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों के विपरीत होने के कारण ऐसा उपचार अस्थायी, दुष्प्रभावों की सम्भावनाओं वाला हो सकता है। वास्तव में जो चिकित्सा शरीर को स्वस्थ, शक्तिशाली, ताकतवर, रोगमुक्त बनाने के साथ-साथ मन को संयमित, नियन्त्रित, अनुशासित और आत्मा को निर्विकारी, पवित्र एवं शुद्ध बनाती है- वे ही चिकित्सा पद्धतियाँ स्थायी प्रभावशाली एवं सर्वश्रेष्ठ चिकित्सा पद्धति होने का दावा कर सकती है। अतः स्वास्थ्य मंत्रालय को अपना पूर्वाग्रह छोड़ अन्य स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियों पर वैज्ञानिक खोज एवं चिन्तन समय की माँग है।
✖33. उपचार में आत्मिक ऊर्जा की उपेक्षा अनुचित
स्वास्थ्य के प्रति हमारा अज्ञान अथवा अधूरा ज्ञान रोगों का मूल कारण है। रोग की चार अवस्थाएँ हैं। शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और आत्मिक। जिस अवस्था का रोग हो, जब तक उसके अनुरूप उपचार नहीं किया जाएगा तब तक रोग से मुक्ति सम्भव नहीं। आज प्रायः मानसिक और आत्मिक रोगों को तो हम रोग मानते ही नहीं, क्योंकि मन और आत्मा की शक्ति का हमें न तो सम्पूर्ण ज्ञान ही है और न हम उसको जानने एवं समझने का अपेक्षित प्रयास ही करते हैं। इसके विपरीत आत्मबल और मनोबल की क्षमताओं से अपरिचित होने के कारण उसका अवमूल्यन कर दुरुपयोग करते संकोच नहीं करते। शरीर से मन और मन से भावना की शक्ति बहुत ज्यादा है और भावना से आत्मा की शक्ति अनन्त गुणा ज्यादा होती है, जब ऐसे व्यक्ति जिन्हें चलने-फिरने में भी अत्यधिक कष्ट होता है, परन्तु सामने मृत्यु का प्रसंग या भय जैसी परिस्थिति उत्पन्न होने पर दौड़ने लग जाते हैं। शारीरिक वेदना से तड़पने वाले मृत्यु की शय्या पर अन्तिम श्वास गिनने वालों के सामने, जब लम्बे समय पश्चात् उनका कोई स्नेही परिजन मिलता है, तो क्षण मात्र के लिए सारे दुःख-दर्द कैसे भूल जाते हैं? खुशी के प्रसंगों पर रोगों को क्यों भूल जाते हैं? आत्म साधक सभी भौतिक सुख-सुविधाओं को त्यागने वाले आत्म बली, आध्यात्म योगी, सन्त, मुनिजन इतने तनावमुक्त, प्रसन्नचित्त, शान्त, निर्भय, सुखी, संतोषी कैसे रहते हैं?
✖34. स्वास्थ्य आधारित पौराणिक जीवन शैली
भौतिक विज्ञान से जहाँ बुद्धि का विकास हो रहा है, वहीं शारीरिक, मानसिक, भावात्मक और आत्मिक स्तर पर मानव दुर्बल और परावलम्बी होता जा रहा है। आत्मिक आनन्द से अनभिज्ञ आधुनिक स्वास्थ्य विज्ञान के विस्तार से जनसाधारण का रोग के कारणों के प्रति मौलिक चिन्तन स्वाध्याय की प्रवृत्ति घटती जा रही है। हमारे ऋषि-मनीषियों ने अपने अनुभव के आधार पर जीवन शैली को प्रकृति के अनुरूप जिस सहज रूप से ढाला, जिससे प्रत्येक व्यक्ति का स्वास्थ्य अच्छा रह सके, आज यह चिन्तन गौण होता जा रहा है। जैसे मौसम के बदलाव से जुड़े हमारे त्यौहार, रीति-रिवाज, पर्व, खान-पान, रहन-सहन, वस्त्र, आभूषण, आराधना पद्धति, व्रत, उपवास, लोक संगीत, सुख-दुःख के प्रसंगों पर सामूहिक भागीदारी आदि के पीछे स्वास्थ्य विज्ञान का पूर्ण आधार था, परन्तु आज हम उसके महत्त्व को भूलकर, पश्चिमी देशों के अन्धाःनुकरण और वैज्ञानिकता की आड़ में जो जीवन शैली निःसंकोच अपना रहे हैं, उससे स्वास्थ्य की समस्याएँ बढ़ती जा रही है।
✖35. स्वास्थ्य विज्ञान का मूलाधार क्या हो?
जो सत्य को परिभाषित करता है, वही विज्ञान है। विज्ञान का आधार होता है-‘‘सच्चा सो मेरा” न कि ‘‘मेरा जो सच्चा”। वास्तव में जो सत्य है उसको स्वीकारने में किसको आपत्ति हो सकती है। परेशानी तो तब होती है जब विज्ञान के नाम पर आंशिक तथ्यों पर आधारित, अधूरे सत्य को पूर्ण बतलाने का प्रयास किया जाता है। कभी-कभी अपनी बातों को वैज्ञानिक बतलाने हेतु मायावी आंकड़े, झूठे भ्रामक विज्ञापनों एवं संख्या बल का सहयोग लिया जाता है तथा वास्तविकता एवं सनातन सत्य को नकारा जाता है। अपनी पद्धतियों को वैज्ञानिक तथा अन्य पद्धतियों को अवैज्ञानिक बतलाने का दुष्प्रचार किया जाता है। हमारा दृष्टिकोण संकुचित हो जाता है। विज्ञान के मूल मापदण्ड गौण होने लगते हैं। किसी भी तथ्य को वैज्ञानिक मानने के लिए अंतिम परिणामों की एकरूपता भी आवश्यक है, भले ही वह प्रयोग किसी के द्वारा कहीं पर भी क्यों न किया गया हो।
✖36. भौतिक विज्ञान पर निर्भर स्वास्थ्य विज्ञान अपूर्ण
भौतिक विज्ञान का आधार वही पदार्थ होता है, जिसे दिखाया जा सके, जो मापा जा सके, जो प्रयोगों, परीक्षणों से प्रमाणित किया जा सके। ऐसे परिणाम जो तथ्य, तर्क एवं आंकड़ों से लिपिबद्ध किए जा सके। जिसका आधार निरीक्षण, विश्लेशण, निश्चित प्रक्रिया पर आधारित व्यवस्थित आंकड़ों द्वारा संकलित एवं प्रमाणित हो। जिसका उपयोग, संचालन, नियंत्रण प्रायः व्यक्ति स्वयं अथवा अन्य कोई व्यक्ति द्वारा निश्चित विधि का पालन कर बिना किसी बाह्य भेदभाव कहीं भी किया जा सके। आज तक स्वास्थ्य विज्ञान के नाम पर जो कुछ उपलब्धियाँ विकसित हुई है, उन सब का सम्बन्ध प्रायः भौतिकता से ही होता है। अनुभूति, आवेग, संवेदनाएँ, आत्म-विकार, आत्मबल, मनोबल, एवं चेतना की ऊर्जा का माप गौण होता है। स्वास्थ्य मंत्रालय को ऐलोपेथिक चिकित्सा को ही वैज्ञानिक मानने के सम्बन्ध में अपना दुराग्रह छोड़ सही स्वास्थ्य विज्ञान के बारे में स्पष्टीकरण देना चाहिए।
✖37. भौतिक विज्ञान एवं आध्यात्मिक विज्ञान में भेद
जड़ विज्ञान का कार्य क्षेत्र होता है- भौतिक विकास, भौतिक सफलताएँ, भौतिक उपलब्धियाँ आदि। उसका आधार होता है परावलम्बन। जबकि आध्यात्मिक विज्ञान से आत्म विकास का मार्ग प्रशस्त होता है। उसका आधार होता है स्वावलम्बन। अर्थात् स्वयं के द्वारा स्वयं का निरीक्षण, परीक्षण, नियंत्रण, संचालन। उसका परिणाम होता है- आत्मानुभूति। मनोबल और आत्मबल का विकास, अर्थात् भौतिक विज्ञान व्यक्ति को विशिष्ट बनाता है, जबकि आध्यात्मिक ज्ञान मानव को स्वाभाविक बनाता है।
भौतिक विज्ञान प्रयोग में विश्वास करता है, जबकि आध्यात्म विज्ञान योग में। विज्ञान शक्ति की खोज करता है, जबकि आध्यात्म शान्ति की। जिस प्रकार बिजली का तार और उसमें प्रवाहित विद्युत अलग-अलग होती है। उसी प्रकार जड़ से सम्बन्धित शरीर और चेतना से संबंधित आत्मा अलग-अलग होती है। अतः दोनों से सम्बन्धित ज्ञान का लक्ष्य भी अलग-अलग होता है। अध्यात्म की उपेक्षा करने वाला सही स्वास्थ्य विज्ञान कैसे हो सकता है?
✖38. अध्यात्म से शून्य स्वास्थ्य विज्ञान अपूर्ण
जिस चिकित्सा में शारीरिक स्वास्थ्य ही प्रमुख हो, मन, भावों अथवा आत्मा के विकार जो अधिक खतरनाक, हानिकारक होते हैं, गौण अथवा उपेक्षित होते हों, ऐसी चिकित्सा पद्धतियों को ही वैज्ञानिक समझने वाले, विज्ञान की बातें भलें ही करते हों, विज्ञान के मूल सिद्धान्तों से अपरिचित लगते हैं। विज्ञान शब्द का अवमूल्यन करते हैं। सनातन सत्य पर आधारित प्राकृतिक सिद्धान्तों को नकारते हैं। ऐसी सोच गाड़ी में पेट्रोल डाल चालक को भूखा रखने के तूल्य है। ऐसी गाड़ी में यात्रा करने वाला यात्री लम्बी दूरी की यात्रा कैसे कर सकेगा। यह चिन्तन का प्रश्न है? उसी प्रकार चेतन चालक की उपेक्षा कर जड़ शरीर रूपी वाहन का ही ख्याल रखने वालों को ज्ञानी, समझदार, बुद्धिमान कैसे कहा जाए?
✖39. शारीरिक एवं आध्यात्मिक चिकित्सा में भेद
आत्मा के विकार-मुक्त होने से शरीर, मन और मस्तिष्क तो स्वतः ही स्वस्थ हो जाता है। आध्यात्मिक चिकित्सा में मन, मस्तिष्क, शरीर और वाणी का उपयोग मात्र आत्म शुद्धि के लिए ही किया जाता है और जब आत्मा के ये प्रतिनिधि उस कार्य में सहयोग देना बन्द कर देते हैं, तो उनकी भी उपेक्षा कर दी जाती है। इसके विपरीत अन्य चिकित्साओं का लक्ष्य मात्र शरीर, मन अथवा मस्तिष्क की स्वस्थता तक ही सीमित होता है। आत्मा की तरफ लक्ष्य न होने से प्रायः आत्मा के सद्गुणों की चिकित्सा करते समय उपेक्षा हो जावे तो भी कोई आश्चर्य नहीं? आत्मा को विकारी, अपवित्र बनाने वाली चिकित्सा पद्धतियों का उद्देश्य नौकर को मालिक से ज्यादा महत्त्व देने के समान अबुद्धिमत्ता पूर्ण होता है।
✖40. उपचार हेतु सिद्धान्तों की उपेक्षा अनुचित
आजकल अन्य चिकित्सा पद्धतियों से जुड़े चिकित्सक अपने मूल सिद्धान्तों से हटकर आधुनिक चिकित्सा के निदान को आधार मानकर प्रायः उपचार करते हैं। उनमें स्वयं की चिकित्सा के प्रति आत्मविश्वास की कमी स्पष्ट प्रतीत होती है। भूतकाल में आयुर्वेदाचार्य नाड़ी देखकर रोग का सही निदान कर देते थें। उनको सही एवं शुद्ध देशी जड़ी बूटियों का ज्ञान और पहचान थी। दवा बनाते समय वे उपयोगी मंत्रों का उच्चारण करते थे, जिससे दवा का प्रभाव कई गुणा बढ़ जाता था। परन्तु आज आयुर्वेद चिकित्सक कैसे निदान करते हैं? और उपचार हेतु दवा देते हैं, हम सबको विदित है। आजकल तो आयुर्वेद दवाओं का निर्माण भी कारखानों में होना प्रारम्भ हो गया है एवं उनका परीक्षण जानवरों पर होने से उनका प्रभाव सीमित हो रहा है। अतः वर्तमान आयुर्वेद चिकित्सा न तो पूर्ण रूप से अहिंसक है और न अत्यधिक प्रभावशाली।
✖41. राहत ही पूर्ण उपचार नहीं होता
आज उपचार के नाम पर रोग के कारणों को दूर करने के बजाय अपने-अपने सिद्धान्तों के आधार पर प्रायः रोग के लक्षण मिटाने का प्रयास हो रहा है। उपचार में समग्र दृष्टिकोण का अभाव होने से तथा रोग का मूल कारण पता लगाये बिना उपचार किया जा रहा है अर्थात् रोग से राहत ही उपचार का लक्ष्य बनता जा रहा है। भावात्मक एवं मानसिक असंतुलन, तनाव, आवेग जैसे प्रमुख कारण हमारी अन्तःश्रावी ग्रन्थियों को प्रभावित करते हैं। हमारे शारीरिक, मानसिक एवं चारित्रिक विकास का ग्रन्थियों से सम्बन्ध होता है। ग्रन्थियों का असन्तुलन हमारे 60 से 75 प्रतिशत रोगों का मूल कारण होता है, फिर भी आधुनिकता का एवं सम्पूर्ण चिकित्सा का दम्भ भरने वाली उपचार पद्धतियों के पास उसको सन्तुलित रखने का कोई सरल एवं प्रभावशाली उपाय नहीं है। आज राहत को ही प्रभावशाली उपचार समझने की भूल हो रही है। उपचार में दुष्प्रभावों की उपेक्षा हो रही है। ऐसा उपचार दीमक लगी लकड़ी पर रंग-रोगन कर चमकाने के समान होता है तथा हमारी असजगता, अविवेक एवं अज्ञान का परिचायक। रूई में लगी आग को हम कब तक छिपाये रख सकेंगे? आज उपचार के नाम पर प्रायः मूल में भूल हो रही है। रोगों के कारणों की उपेक्षा कर उन्हें दूर करने के बजाय उन्हें दबाकर तात्कालिक राहत पहुँचायी जाती है। गन्दगी को सफाई के नाम पर दबाकर या छिपाकर रखने से हानि ही अधिक होगी। उसमें सड़ान्ध, दुर्गन्धता बढ़ेगी। उसी प्रकार शरीर में रोग को दबाने से वह भविष्य में विकराल रूप धारण करेगा एवं असाध्य बन अधिक परेशानी तथा संकट का कारण बनेगा।
राहत उपचार का महत्त्वपूर्ण भाग हो सकता है, परन्तु राहत ही मात्र पूर्ण उपचार नहीं हो सकता।
✖42. क्या स्वास्थ्य हेतु समान मापदण्डों का निर्धारण सम्भव है?
दुनियाँ में जब कोई भी दो व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से एक जैसे नहीं हो सकते हैं? तब दो रोगी एक जैसे कैसे हो सकते हैं? बाह्य लक्षणों में समानता लगने के बावजूद सहयोगी परोक्ष रोगों का परिवार अलग-अलग होता है। क्या उनके जीवन का लक्ष्य, प्राथमिकताएँ, कत्र्तव्य, आवश्यकताएँ, समस्याएँ आदि एक जैसी ही होती है? अतः बाह्य रूप से कुछ लक्षणों में समानता होने के बावजूद एक जैसी दवा अथवा उपचार करना, किसी एक रोग के नाम से रोगी का परिचय करना, सहयोगी रोगों की उपेक्षा करना कहाँ तक उचित है? जो चिन्तनशील व्यक्तियों के सम्यक् चिन्तन की अपेक्षा रखता है।
जितनी और जैसी रोग की स्थिति होती है, उसके अनुरूप ही समाधान होता है। जिसकी जितनी बुद्धि, विवेक, पात्रता, समझ और क्षमता होती है, उसको उसी के अनुरूप समाधान अथवा परामर्श दिया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति का खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार, आवास-प्रवास, आयु, व्यवसाय, कत्र्तव्य, जिम्मेदारियाँ, रूचि, स्वभाव, सहनशक्ति, सोच, शारीरिक और मानसिक क्षमता, पारिवारिक एवं व्यावसायिक परिस्थितियाँ, रीति-रिवाज, धार्मिक संस्कार और मान्यताएँ, मौसम की स्थिति और बदलाव, सहयोगी एवं द्वेशी लोगों का योग आदि दैनिक जीवन में ऐसे अनेकों कारण होते हैं जो व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, व्यक्ति में तनाव अथवा प्रसन्नता का कारण बनते हैं।
✖43. अच्छे चिकित्सक के मापदण्ड
43. अच्छे चिकित्सक के मापदण्ड
- रोगी की निदान एवं उपचार सम्बन्धी शंकाओं की उपेक्षा न करने वाला।
- जो रोगी को तुरन्त राहत पहुँचाने हेतु, भविष्य में पड़ने वाले अधिक हानिकारक दुष्प्रभावों की उपेक्षा न करता हो।
- जो आवश्यकता पड़ने पर अन्य चिकित्सा पद्धतियों का सहयोग लेने में नहीं हिचकिचाता।
- जो अनावश्यक परीक्षण नहीं कराता हो एवं न अनावश्यक दवाइयाँ देता हो।
- जो प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों की उपेक्षा नहीं करता।
- जो उपचार में रोगी की क्षमताओं का अधिकतम उपयोग लेता है।
- पूर्वाग्रसित मान्यता वाला न हो। सत्य को समझकर उसे स्वीकारने वाला हो।
- जो सहयोगी अप्रत्यक्ष रोगों की उपेक्षा न करता हो। निदान एवं उपचार करते समय सम्पूर्ण शरीर, मन एवं आत्मा को एक इकाई मानता हो।
- जिसकी वाणी में मधुरता हो एवं रोगी में आत्मविश्वास बढ़ाने वाला हो।
- अनुभवी चिकित्सक अनेकों रोगों में भी कम से कम दवाइयें देता है और महान् चिकित्सक अनेक रोगों में कभी-कभी कोई दवा तक नहीं देता एवं उपचार भी दुष्प्रभावों से रहित, प्रभावशाली एवं स्थायी करता है। हम स्वयं निर्णय करे, कौनसा चिकित्सक अच्छा है?
- रोगी को तुरन्त राहत दिलाने हेतु भविष्य में अधिक नुकसान पहुंचाने वाली अनावश्यक दवायें लेने हेतु परामर्श न दें।
- विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों की निम्नतम सैद्धान्तिक जानकारी रखता हो।
- जो उपचार में रोगी की क्षमताओं का अधिकतम उपयोग लेता हो।
- जो यथा संभव हिंसा से निर्मित दवाओं का परामर्श नहीं देता हो।
- जो शारीरिक रोगों से मुक्त करने के साथ-साथ उपचार में रोगी का मानसिक एवं आत्मिक विकार भी घटाने वाला हो।
- जो सहयोगी अप्रत्यक्ष रोगों की उपेक्षा न करता हो।
✖44. क्या शरीर में रासायनिक परीक्षणों पर आधारित निदान सदैव समान होते हैं?
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क्या शरीर में रासायनिक परीक्षणों पर आधारित निदान सदैव समान होते हैं?
व्यक्ति की संवेदनाओं, आवेगों, तनाव आदि से अन्तःस्रावी ग्रंर्थियाँ प्रभावित होती है, जिससे शरीर की सभी क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। इसी कारण शरीर का रासायनिक स्वरूप कभी स्थिर नहीं रहता। प्रतिक्षण बदलता रहता है। यही कारण है कि किसी भी व्यक्ति के अलग-अलग समय पर कराये गये मल, मूत्र, रक्त, ई.सी.जी. आदि की पैथोलाजिकल टेस्ट रिर्पोट निरन्तर बदलती रहती है। अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति में निदान का यही मूलाधार है। जब आधार ही बदलता रहे तो उन पर आधारित उपचार कैसे सही, पूर्ण, स्थायी और प्रभावशाली एवं दुष्प्रभावों से रहित हो सकता है?
✖45. शारीरिक लक्षणों पर आधारित रोग का निदान अपूर्ण
शारीरिक लक्षणों पर आधारित रोग का निदान अपूर्ण
शरीर में जितने रोग अथवा उनके कारण होते हैं उतने हमारे ध्यान में नहीं आते। जितने ध्यान में आते हैं, उतने हम अभिव्यक्त नहीं कर सकते। जितने रोगों को अभिव्यक्त कर पाते हैं, वे सारे के सारे चिकित्सक अथवा अति आधुनिक समझी जाने वाली मशीनों एवं रासायनिक परीक्षणों की पकड़ में नहीं आते। जितने लक्षण स्पष्ट रूप से उनकी समझ में आते हैं, उन सभी के अनुरूप दवा उपलब्ध नहीं होती। परिणाम स्वरूप जो लक्षण स्पष्ट रूप से जांचों में प्रकट होते हैं, उनके अनुसार आज रोगों का नामकरण किया जा रहा है तथा दवा निर्माता दवाईयों का निर्माण करते हैं। अधिकांश प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों का ध्येय उन लक्षणों को दूर कर रोगों से तुरन्त राहत पहुँचाने का होता है। विभिन्न चिकित्सा पद्धतियाँ और उनमें कार्यरत चिकित्सक आज असाध्य एवं सक्रामक रोगों के उपचार के जो बड़े-बड़े दावे और विज्ञापन करते हैं, वे कितने भ्रामक, अस्थायी होते हैं, जिस पर पूर्वाग्रह छोड़कर सम्यक् चिंतन करना आवश्यक हैं।
जब निदान ही अधूरा हो, अपूर्ण हो तब प्रभावशाली उपचार के दावे छलावा नहीं तो क्या हैं? अतः उपचार करते समय जो चिकित्सा पद्धतियाँ शारीरिक व्याधियों को मिटाने के साथ-साथ मन व आत्मा के विकारों को दूर करती हैं, उन्हीं चिकित्सा पद्धतियों द्वारा स्थायी एवं प्रभावशाली उपचार संभव हो सकता हैं। अतः जिन्हें स्थायी रूप से रोग मुक्त बनना हो, उन्हें शरीर, मन और आत्मा को रोग ग्रस्त एवं विकारी बनाने वाले सभी कारणों से यथा संभव बचना चाहिये एवं दुष्प्रभावों तथा शरीर की प्रतिरोधक क्षमता कम करने वाले उपचार से दूर रहना चाहिये।
✖46. उपचार हेतु सही निदान आवश्यक
उपचार हेतु सही निदान आवश्यक
आज चेतनाशील प्राणियों में मानव का प्रतिशत 0.1 से भी कम है। 99.9 प्रतिशत जीव अपना सहज जीवन जीते हैं। वास्तव में अनन्त पुण्यों से प्राप्त इस मानव तन में स्वतः स्वस्थ रहने की क्षमता है, परन्तु हमारी निरन्तर अप्राकृतिक जीवनशैली के कारण हमारी शारीरिक तथा मानसिक स्थिति असन्तुलित होने लगती है, जिससे शरीर में विजातीय तत्त्व जमा होने लगते हैं एवं वे शारीरिक प्रक्रियाओं में अवरोध उत्पन्न करने लगते हैं अर्थात् रोगों की उत्पति होने लगती है। शरीर की यह विशेषता है कि वह अपने उपयोगी तत्त्व को रख लेता है और अनुपयोगी तत्त्वों को शरीर के बाहर भेज देता है। परन्तु असन्तुलन की स्थिति में अनुपयोगी तत्त्वों का पूर्ण विसर्जन नहीं हो पाता एवं शरीर में वे एकत्रित होने लगते हैं, जो रोग का मूल कारण है। प्रारम्भ में हमारा ध्यान रोग की तरफ जाता ही नहीं, क्योंकि शरीर में स्वयं उनसे लड़ने की क्षमता होती है, परन्तु हमारी निरन्तर उपेक्षा से धीरे-धीरे शरीर में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष अनेक रोग फैलने लगते हैं, तब कहीं उन रोगों के लक्षण हमें अनुभव होने लगते हैं। अतः वास्तव में जिन रोगों का निदान किया जाता है, वे अकेले रोग नहीं होते, बल्कि रोगों के नेता होते हैं। जिनको सैकड़ों अप्रत्यक्ष रोगों का सहयोग प्राप्त होता है, परन्तु आश्चर्य यह है कि प्रायः उन अप्रत्यक्ष रोगो को हम रोग मानते ही नहीं, तथा हमारा सारा प्रयास नामधारी रोग को मिटाने मात्र का होता है। जनतन्त्र में नेता को हटाने का एक उपाय है। जिस सहयोग एवं समर्थन से नेता बनता है, उसकी ठीक विपरीत प्रक्रिया द्वारा (असहयोग एवं विरोध से) उसको हटाया जा सकता है। बिना समर्थकों को अलग किये जैसे नेता को हटाना कठिन होता है, ठीक उसी प्रकार अप्रत्यक्ष सहयोगी रोगों की उपेक्षा कर पूर्ण रूप से रोगमुक्त नहीं बना जा सकता। एक रोग की समाप्ति दूसरे को सामने लाएगी एवं रोगी पराधीन बनकर सदैव डाॅक्टरों अथवा दवाइयों पर आश्रित रहने लगेगा। जिन्दगी का बाकी समय पीड़ादायक, तनावग्रस्त, परतन्त्र एवं दुःखी हो जावेगा।
✖47. उपचार से पूर्व निदान की सच्चाई पर चिन्तन आवश्यक
उपचार से पूर्व निदान की सच्चाई पर चिन्तन आवश्यक
जानवर चिन्तन और मनन नहीं कर सकता। मनुष्य ही अपनी बुद्धि, ज्ञान एवं सद्विवेक द्वारा भविष्य में आने वाली विपत्तियों से अपने आपको बचा सकता है। जो अपना भला बुरा न सोचे, दुष्प्रभावों की उपेक्षा करे, निदान और उपचार के तौर तरीके का विश्लेशण न करे, उसमें और पशु में क्या अन्तर है? उपचार से पूर्व रोगी को यथासम्भव निदान की सत्यता एवं उपचार की यथार्थता से शंका रहित होना चाहिए। जैसे किसी व्यक्ति के घुटनों में दर्द है, तो चिकित्सक से उसका कारण जानना चाहिए। दवा उस कारण को कैसे दूर करेगी? शरीर में उससे आवश्यक अवयव कौन बनाता है और उन अवयवों से कौन-कौन से तंत्र प्रभावित होते हैं? उस अवयव की कमी या उससे सम्बन्धित शरीर के अन्य स्थानों अथवा तंत्रों पर प्रभाव क्यों नहीं पड़ा? जैसे दूसरे घुटने अथवा अन्य जोड़ों में दर्द क्यों नहीं? क्या दवा में आवश्यक अवयवों की मात्रा का निर्धारण कम अथवा ज्यादा तो नहीं है? दवा से क्या-क्या दुष्प्रभाव सम्भावित हैं? मुँह में ली गई दवा का प्रभाव दर्द वाले स्थान पर कैसे और कितना पहुँचता है? दवा का प्रभाव कितनी देर तक रहता है? स्थायी क्यों नहीं? ऐसे सम्बन्धित प्रश्नों पर उपचार लेते समय रोगी अथवा उसके परिजनों को चिन्तन कर सम्यक् समाधान प्राप्त करना चाहिए?
✖48. निदान की प्रमाणिकता पर चिन्तन आवश्यक
निदान की प्रमाणिकता पर चिन्तन आवश्यक
आज चिकित्सा करवाते समय उपचार की प्रासंगिकता के बारे में प्रायः रोगी तनिक भी चिन्तन-मनन नहीं करते। चिकित्सक से निदान की सत्यता के संबंध में अपनी शंकाओं और उपचार से पड़ने वाले दुष्प्रभावों के बारे में स्पष्टीकरण नहीं लेते। रोग का मूल कारण जाने बिना उपचार प्रारम्भ करवा देते हैं। आज यह दवा, कल दूसरी, परसों तीसरी दवा। आज यह चिकित्सक, कल दूसरा चिकित्सक, परसों अन्य चिकित्सक। कभी यह अस्पताल, कभी दूसरा अस्पताल तो कभी अन्य अस्पताल। आज एक चिकित्सा पद्धति, चन्द रोज बाद दूसरी पद्धति और अगर रोग मुक्त न हो तो न जाने कितनी-कितनी चिकित्सा पद्धतियाँ बदलते संकोच नहीं करते। स्वयं की असजगता, अविवेक और सही चिन्तन न होने से हमारी सोच लुभावने विज्ञापनों, डाॅक्टरों के पास पड़ने वाली भीड़ से प्रभावित होती है। हम असहाय, हताश बन चिकित्सकों की प्रयोगशाला बनते तनिक भी संकोच नहीं करते। आज अधिकांश असाध्य एवं संक्रामक रोगों का एक मुख्य कारण, प्रारम्भिक अवस्था में गलत उपचार से पड़ने वाले दुष्प्रभाव होते हैं, जिसकी तरफ शायद ही किसी का ध्यान जा रहा है।
✖49. निदान को प्रभावित करने वाले तथ्यों की उपेक्षा अनुचित्त
निदान को प्रभावित करने वाले तथ्यों की उपेक्षा अनुचित्त
आज हमने उपचार हेतु शरीर को कई टुकड़ों में बांट दिया है। जैसे एक अंग का दूसरे किसी अंग से संबंध ही न हो। आंख का डाॅक्टर अलग, कान, नाक, गला, दाँत, हृदय, फेंफड़ा, गुर्दा, मस्तिष्क आदि सभी के विशेषज्ञ डाॅक्टर अलग-अलग होते हैं। उपचार करते समय जब तक पूर्ण शरीर, मन व आत्मा को एक इकाई के रूप में स्वीकार न किया जायेगा, तब तक स्थायी प्रभावशाली उपचार एक कल्पना मात्र होगी।
आँख, कान अथवा शरीर का सूक्ष्म से सूक्ष्म भाग अथवा इन्द्रियाँ मात्र भौतिक उपकरण ही नहीं है, परन्तु उसके साथ जीवन्त चेतना, संवेदनाएँ और मन की स्मृति, कल्पनाएँ, अनुभूति आदि भी जुड़े हैं, उसके ज्ञान के बिना आँख और कान जैसे शरीर के किसी भी भाग की सूक्ष्मतम जानकारी अधूरी ही होती है।
- किसी व्यक्ति को निद्रा में खर्राटे आते हैं तो किसी को डकारें, किसी को हिचकियाँ, किसी को छीकें, किसी को जम्भाईयाँ (उबासी) आदि अधिक आती हैं। शरीर में इन ध्वनियों के स्पन्दन स्वास्थ्य से संबंधित होते हैं। परन्तु निदान करते समय प्रायः उनकी समीक्षा न होने से निदान व उपचार अधूरा होता है।
- किसी को लाल तो किसी को हरा, पीला, नीला, सफेद आदि रंग अच्छे या बुरे क्यों लगते हैं? रंगों की पसन्द या नापसन्द का स्वास्थ्य से संबंध होता है? रोग का निदान करते समय इस तथ्य की समीक्षा नहीं होती है?
- किसी को खट्टा तो किसी को मीठा, नमकीन, चटपटा आदि में से कोई भी स्वाद रूचिकर अथवा अरूचिकर लगता है। इन स्वादों की पसन्द या अरूचि का स्वास्थ्य से संबंध होता है? मधुमेह वालो को मिठाई और रक्तचाप के रोगियों को नमक छोड़ने की क्यों सलाह दी जाती है? शरीर में इन स्वादों का नियन्त्रण कौन करता है? क्या अपनी इच्छानुसार जब चाहे स्वादों के प्रति लगाव बदला जा सकता है? क्या स्वादों का रोग से संबंध होता है तथा निदान करते समय इस तथ्य को ध्यान में रखा जाता है?
- चंद व्यक्ति अत्यधिक सुगन्ध प्रिय होते हैं। चन्द तनिक भी दुर्गन्ध सहन नहीं कर सकते। कुछ व्यक्तियों को दूर में कुछ भी जल रहा हो, सहज आभास हो जाता है तो कुछ को समीप में जलने का भी आभास नहीं होता। क्या शरीर से निकलने वाली तथा बाहिर से आने वाली गन्धों के प्रति रूचि अथवा अरूचि के भाव का स्वास्थ्य से कोई संबंध है? क्या गन्ध का नियन्त्रण एक मात्र नाक से संबंधित होता है? क्या गन्ध के प्रति हमारी प्रकृति को दवा द्वारा मन चाहा बदलना संभव है? क्या गंध के प्रति रूचि या अरूचि निदान को प्रभावित करती है?
- किसी व्यक्ति को बैठे-बैठे ही पसीना आता है तो अन्य को कठिन परिश्रम अथवा दौड़ने के बावजूद भी नहीं आता। ऐसा क्यों? किसी को आँखों में बिना कारण आंसू आ जाते हैं। किसी के थूक, कफ अथवा पसीना ज्यादा, तो वैसे ही लक्षणों वाले अन्य रोगी को कभी-कभी कम भी आता है? क्या हम जैसा चाहें, जितना चाहें, जिस मार्ग से चाहें तरल विजातीय पदार्थों का विसर्जन अपनी इच्छानुसार कर सकते हैं? क्या विजातीय तरल विभिन्न द्रवों के विसर्जन तरीकों का आपसी संबंध होता है? क्या पेथालोजीकल अथवा अन्य परीक्षणों द्वारा इनके कारणों का पूर्ण निदान संभव होता है?
- कोई व्यक्ति दयालु तो कोई क्रूर, हिंसक क्यों? कोई निराश, बैचेन अधीर तो कोई धैर्यवान क्यों? कोई लोभी, लालची तो कोई संतोषी क्यों? कोई क्रोधी, चिड़चिड़ा तो दूसरा शान्त और मधुर वक्ता क्यों? कोई मायावी, कपटी दगेबाज तो दूसरा सहज, सरल क्यों? कोई घमण्डी तो कोई विनम्र क्यों? कोई भयभीत, तनावग्रस्त, दुःखी तो कोई निर्भय, तनावमुक्त और सुखी क्यों? क्या ये संस्कार स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं? क्या चिकित्सा पद्धतियाँ निदान में इन तथ्यों को महत्त्व देती है? क्या बाह्य लक्षणों के साथ इनका कोई संबंध है? क्या समान लक्षणों वालों का स्वभाव एक जैसा होना जरूरी है?
ज्ञानेन्द्रियों से सम्बन्धित रोग के ऐसे अनेक मूल कारणों की उपेक्षा होने से आधुनिक निदान पूर्ण नहीं होता है। जितना-जितना उपरोक्त तथ्यों के आधार पर निदान किया जायेगा उतना-उतना निदान सही होता है।
✖50. निदान हेतु समग्र दृष्टिकोण आवश्यक?
निदान हेतु समग्र दृष्टिकोण आवश्यक?
ब्राह्य लक्षणों की एक रूपता के बावजूद संवेदनाओं की ग्रहण शक्ति, आसपास के वातावरण में उपलब्ध आणविक तरंगों का दुष्प्रभाव, रोग के सर्वाधिक प्रभाव का समय एवं मौसम, रोगी की आयु, उसके शरीर से निकलने वाली विभिन्न प्रकार की स्वाभाविक ध्वनियां, जैसे निद्रा में खर्राटें आना, हिचकियां, डकार, छींक, खांसी आदि की आवाज, रोगी का स्वभाव एवं संस्कार, जीवनचर्या, शरीर में वात, कफ और पीत्त के असंतुलन की स्थिति, शरीर में यिन-यांग अंगों का असंतुलन, प्रत्येक अंग में मूलभूत प्राण ऊर्जाओं (वायु, गर्मी, नमी, शुष्कता, ठण्डक) का असंतुलन, उदय में आने वाले कर्मो की स्थिति, खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार, चिन्तन-मनन, पारिवारिक, सामाजिक और व्यवसायिक वातावरण, श्रम एवं पुरुषार्थ आदि की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। किसी भी घटनाक्रम अथवा प्रतिक्रिया को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव प्रभावित करते हैं। रोग का निदान करते समय इनके प्रभावों का चिन्तन भी आवश्यक होता है।
कोई भी रोग रातों रात पैदा नहीं हो जाता। जिस प्रकार बीज धीरे-धीरे वृक्ष का रूप लेता है, उसी प्रकार रोग भी धीरे-धीरे अपना प्रभाव दिखाता है। शरीर में सैंकड़ों रोग होने की स्थिति में ही किसी रोग के लक्षण बाह्य रूप से प्रकट होने लगते हैं अथवा हमारे ध्यान में आते हैं। वास्तव में आधुनिक चिकित्सक जिन मुख्य लक्षणों के आधार पर रोग का नामकरण कर रोग का निदान करते हैं। वह तो शरीर में विद्यमान अन्य अप्रत्यक्ष रोगों के नेता के समान ही होता है। मानव जीवन में किसी भी घटना घटित होने के लिये पांच समवाय का सिद्धान्त मूल होता है। वस्तु का स्वभाव, काल, नियति, कर्मो के उदय में आने की स्थिति और पुरुषार्थ। शरीर का स्वभाव अर्थात उसकी समस्त गतिविधियों, रोग उत्पन्न होने का समय, कर्म और नियति पर हमारा प्रायः सीधा नियन्त्रण नहीं होता है। हमारे नियन्त्रण में तो एक मात्र सम्यक् पुरुषार्थ ही होता है। अतः हम ऐसा कोई कार्य न करें जो स्वास्थ्य के नियमों के प्रतिकूल हो। परन्तु जब पूर्वोपार्जित कर्म उदय में आने का समय परिपक्व हो जाता हैं, नियति कुछ ऐसी परिस्थितियां बना देती हैं जिससे हम न चाहते हुए अथवा सावधानी रखते हुए भी रोगग्रस्त अथवा दुर्घटनाग्रस्त हो जाते हैं। प्रतिकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती है। अतः निदान करते समय हमारा चिन्तन केवल रोग के शारीरिक कारणों तक ही केन्द्रित न रहें अपितु रोग के अन्य मानसिक और आत्मिक कारणों की भी सही निदान हेतु समीक्षा आवश्यक होती है।
✖51. आधुनिक चिकित्सा को सर्वेसर्वा मानने का दुष्परिणाम
आधुनिक चिकित्सा को सर्वेसर्वा मानने का दुष्परिणाम
आधुनिक चिकित्सा पद्धति को अत्यधिक महत्त्व मिलने तथा सरकारी मान्यता, सहयोग और संरक्षण मिलने के कारण अधिकांश डाॅक्टरों में स्वावलम्बी चिकित्साओं के प्रति गुण ग्राहकता नजर नहीं आती। कभी-कभी तो वे अनायास उन पर बिना सोचे-समझे आरोप अथवा मिथ्या प्रचार करते तनिक भी नहीं हिचकिचाते। जनमानस की उनके प्रति अटूट आस्था होने से उनके कथनों का जनता पर ज्यादा और जल्दी प्रभाव पड़ता है। विज्ञापन, अन्धाःनुकरण, भीड़भाड़ वाले शीघ्रता के इस युग में अज्ञानवश अपनी क्षमताओं से अपरिचित होने के कारण तथा प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों और आयुष्य कर्म के सिद्धान्तों पर विश्वास न होने के कारण आज के डाॅक्टरों को भगवान से ज्यादा महत्त्व मिल रहा है। कभी-कभी डाॅक्टर ऐसा कहते सुने गए हैं कि समय पर डाॅक्टर की उपलब्धता के कारण रोगी को मृत्यु से बचाया जा सका, मानों अस्पतालों में डाॅक्टरों की उपस्थिति में शायद ही कोई मरता हो। दवाओं के दुष्प्रभावों की उपेक्षा तथा रोगी की विवशता के कारण मानव सेवा का यह कार्य मात्र स्वार्थ-पोषण और अर्थ उपार्जन तक सीमित होता जा रहा है। रोगी को निदान एवं उपचार के सम्बन्ध में उत्पन्न शंकाओं का सही समाधान नहीं बतलाया जा रहा है, परिणामस्वरूप अपनी असजगता के कारण आज अधिकांश रोगी डाॅक्टरों की प्रयोगशाला बन जाए तो आश्चर्य नहीं।
✖52. क्या शरीर के अंगों में यिन-यांग सिद्धान्त घटित होता है?
क्या शरीर के अंगों में यिन-यांग सिद्धान्त घटित होता है?
संसार की सारी गतिविधियाँ एक-दूसरे के सहयोग एवं नियंत्रण से संचालित होती हैं। प्रायः प्रत्येक वस्तु की तीन अवस्थायें होती है। जन्म और मृत्यु के बीच जीवन। दोनों अंतिम छोर एक-दूसरे के पूरक होते हैं। जैसे दिन-रात, अन्धेरा-प्रकाश, ऊपर-नीचे, आगे-पीछे, पति-पत्नी, ठण्डा-गरम, पोजेटिव-नेगटिव, चुम्बक के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव। जिस प्रकार गाड़ी की गति ब्रेक द्वारा नियंत्रित होती है, उसके बिना वाहन का उपयोग नहीं किया जा सकता, ठीक उसी प्रकार शरीर में किसी भी अंग की कार्यप्रणाली पूर्णतया स्वतंत्र नहीं होती। प्रत्येक अंग का पूरक अथवा सहयोगी अंग अवश्य होता है और जब उन सहयोगी अंगों में असंतुलन हो जाता है तो भी रोग की स्थिति बनती हैं। लोम-विलोम अथवा यिन-यांग का सिद्धांत प्रकृति के सनातन नियमों पर आधारित है, परन्तु आधुनिक अंग्रेजी चिकित्सा एवं विभिन्न अन्य चिकित्सा पद्धतियों में यह सिद्धान्त प्रायः गौण होता है। फलतः जो अंग रोगग्रस्त होता है उसी में प्रायः रोग का कारण ढूंढा जाता है तथा उसी अंग के उपचार को प्राथमिकता दी जाती है। जैसे हृदय के रोग में हृदय से, डायबिटीज का उपचार पेन्क्रियाज और दमे का उपचार फेंफड़े के माध्यम से ही किया जाता है। आँख, नाक, कान, हृदय, गुर्दे आदि अंगों के विशेषज्ञ अलग-अलग होते हैं। अतः वे इस बात की कल्पना भी नहीं कर सकते कि कभी-कभी रोग का कारण यिन-यांग सिद्धांत के अनुसार उसका पूरक अंग भी हो सकता है। हृदय का छोटी आंत, फेंफड़े का बड़ी आंत, तिल्ली व पेन्क्रियाज का आमाशय, गुर्दे का मूत्राशय, लिवर का पित्ताशय और मस्तिष्क का नाड़ी संस्थान पूरक अंग होता है। जैसे किसी व्यक्ति की पत्नी बहुत ज्यादा बीमार है और उसके कारण पति का उदास, तनावग्रस्त अथवा दुःखी हो जाना स्वाभाविक है। यदि पति का तनाव एवं दुःख मिटाना है तो पत्नी को रोगमुक्त करना होगा। पत्नी को रोग मुक्त किये बिना पति तनावमुक्त नहीं हो सकता अन्यथा उस बुढ़िया वाली कथा चरितार्थ हो जावेगी जिसकी सुई तो घर में गुम हो गई है, परन्तु घर में अंधेरा होने के कारण वह बाहर प्रकाश में ढूंढती है। उसी प्रकार कभी-कभी रोग का कारण कुछ और होता है लेकिन निदान एवं उपचार कुछ और किया जाता है। ऐसा करने से समस्या का समाधान कैसे हो सकता है? परिणामस्वरूप हृदय, मधुमेह, अस्थमा जैसे अनेक रोगों को आधुनिक चिकित्सा पद्धति असाध्य मानती है। जीवन भर रोगी को दवा पर आश्रित होना पड़ता है। ऐसे लगभग 50 प्रतिशत से अधिक व्यक्ति यिन-यांग को संतुलित करने से ठीक हो जाते हैं। अन्य स्वावलंबी चिकित्सा में उनका प्रभावशाली स्थायी उपचार सम्भव होता है तथा रोगी को दवा पर आश्रित नहीं रहना पड़ता।
✖53. दवाईयों के दुष्प्रभावों की उपेक्षा खतरनाक
दवाईयों के दुष्प्रभावों की उपेक्षा खतरनाक
आधुनिक चिकित्सा के नाम से दी जाने वाली अधिकांश दर्दनाशक दवाईयाँ हमारी संवेदनाओं को निष्क्रिय कर पीड़ा भुलाने का कार्य करती हैं। हम यह भूल जाते हैं कि जो दवा रोगी की संवेदना मिटाती है, वह हमारी कितनी ही सक्रिय कोशिकाओं को निष्क्रिय बना देती है। तात्कालिक राहत पहुँचाने वाली चिकित्सा को प्रभावशाली मानना एवं भविष्य में उससे पड़ने वाले दुष्प्रभावों की उपेक्षा से अपने आपको धोखे में रखने के अलावा कुछ नहीं है। रूई में लगी आग को कब तक दबाकर और छिपाकर रखा जा सकेगा? आज अधिकांश असाध्य एवं संक्रामक रोगों की उत्पति में दवाओं के दुष्परिणाम भी महत्त्वपूर्ण हैं।
अधिकांश व्यक्ति रोग होने में स्वयं की गलती को स्वीकार नहीं करते। इसी कारण रोग के कारणों को समझें बिना, निदान के बारे में अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त किये बिना, डाॅक्टरों के पास पड़ने वाली भीड़ एवं उपचार के भ्रामक विज्ञापनों के अन्धानुकरण के कारण, चिकित्सा से भविष्य में पड़ने वाले दुष्प्रभावों की उपेक्षा करते हुए, अपने आपको डाॅक्टरों की प्रयोगशाला बनाते प्रायः संकोच नहीं करते। अन्य प्रभावशाली विकल्प होते हुए भी शल्य चिकित्सा करवा लेते हैं। वे इस बात का चिन्तन तक नहीं करते कि दवाओं के नियमित या अधिक अथवा अनावश्यक सेवन से शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति क्षीण होने लगती है।
कभी-कभी बहुत छोटी लगने वाली हमारी गलती अथवा उपेक्षावृत्ति भी भविष्य में रोग का बहुत बड़ा कारण बन जीवन की प्रसन्नता-आनन्द सदैव के लिए समाप्त कर देती है।
✖54. उपचार में अन्ध श्रद्धा हानिकारक
उपचार में अन्ध श्रद्धा हानिकारक
‘‘किसी बात को बिना सोचे समझे स्वीकार करना यदि मूर्खता है तो सत्य को बिना सम्यक् चिन्तन एवं तर्क की कसौटी पर कसे, प्रचार-प्रसार के अभाव में पूर्वाग्रसित गलत धारणाओं के कारण अस्वीकार करने वालों को कैसे बुद्धिमान कहा जा सकता है? जिस प्रकार रत्न की पहचान डाॅक्टर, वकील, नेता अथवा सेनापति नहीं कर सकता, उसके लिये जौहरी की दृष्टि चाहिए। ठीक उसी प्रकार शरीर की अनन्त क्षमताओं को समझने के लिये सम्यक् ज्ञान, सम्यम्दर्शन और सम्यक् आचरण आवश्यक होता है।”
जिस प्रकार बीज बोने से पूर्व खेत की सफाई, हल जोतना, और खाद आदि डालकर भूमि को उपजाऊ बनाना आवश्यक होता है। गिलास में नया पेय भरने से पूर्व उसे खाली करना अनिवार्य होता है, किसी कपड़े को रंगने से पहले पुराना रंग ब्लीचिंग प्रक्रिया द्वारा साफ करना आवश्यक होता है, ठीक उसी प्रकार स्वास्थ्य को समझने के लिए हमारी पूर्वाग्रसित गलत धारणाओं का अनेकान्त दृष्टिकोण से चिन्तन कर निराकरण आवश्यक होता हैं। उसके बिना क्या हेय, क्या ज्ञेय और क्या उपादेय का न तो ज्ञान ही हो सकता है और न हमारी सही प्राथमिकताओं का चयन एवं क्षमताओं का अधिकतम उपयोग।
आज जो निदान के भौतिक साधन उपलब्ध हैं, वे व्यक्ति की मानसिकताओं, भावनाओं, कल्पनाओं, संवेदनाओं, आवेगों का विश्लेषण नहीं कर सकते। भय, दुःख, चिन्ता, तनाव, निराशा, अधीरता, पाश्विक वृत्तियाँ, गलत सोच, क्रोध, छल, कपट, तृष्णा, अहं, असन्तोष से होने वाले रासयनिक, परिवर्तनों, को नहीं बतला सकते। भौतिक उपकरण और परीक्षण के तौर-तरीकों से रोगों से पड़ने वाले भौतिक परिवर्तनों का ही पता लगाया जा सकता है, उनके मूल कारणों तक नहीं पहुँचा जा सकता। अतः ऐसा निदान अपूर्ण होता है और उसके आधार पर की गयी चिकित्सा कैसे पूर्ण अथवा वैज्ञानिक होने का दावा कर सकती है। शरीर की पीड़ाओं अथवा निष्क्रियताओं से हम घबरा जाते हैं, उन्हीं को रोग मानते हैं। चेतना का अस्तित्व एवं विकास आधुनिक विज्ञान के कार्य क्षेत्र में नहीं है। आधुनिक चिकित्सा में उपचार भौतिक शरीर तक ही सीमित रहता है। सम्पूर्ण एवं स्थायी स्वास्थ्य के लिए भौतिकता के साथ-साथ आध्यात्मिक दृष्टिकोण भी आवश्यक होता है।
✖55. दो रोगी पूर्ण रूप से एक जैसे नहीं हो सकते
दो रोगी पूर्ण रूप से एक जैसे नहीं हो सकते
दुनियाँ में कभी भी दो व्यक्ति पूर्ण रूप से एक जैसे न तो कभी हुए हैं और न कभी भविष्य में एक जैसे हो सकते हैं। उनकी शारीरिक संरचना, स्वभाव, आसपास के वातावरण की प्रतिक्रिया, मानसिक और कायिक स्थिति कभी भी समान नहीं हो सकती है। कभी-कभी उनकी संरचना में बाह्य रूप से एकरूपता और समानता दिखने के बावजूद शारीरिक, मानसिक और आत्मिक अवस्था में कुछ न कुछ तो अन्तर होता ही है। जब दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हो सकते हैं तो दो रोगी एक जैसे कैसे हो सकते हैं? प्रमुख रोग के लक्षण समान होने के बावजूद सहयोगी रोगों की स्थिति एक जैसे नहीं हो सकती। अर्थात् प्रत्येक रोगी में रोग का परिवार अर्थात् सहायक रोग अलग-अलग होते हैं। जब दो रोगी एक जैसे नहीं हो सकते हें तो उनका उपचार एक जैसा कैसे हो सकता है? प्रत्यक्ष में समान लक्षण दिखने वाले अथवा रासायनिक प्रयोगशालाओं में रक्त, मल, मूत्र के परीक्षण में समानता के लक्षण बतलाने वाले दो रोगी भी शत-प्रतिशत एक जैसे कैसे हो सकते हैं? इसलिये उनका उपचार भी पूर्णतया एक जैसा कैसे हो सकता है? क्या बाजार में उपलब्ध दवाइयों अथवा इंजेक्शन रोगी विशेष के अनुरूप बनाये जाते हैं?
✖56. क्या बाजार में उपलब्ध दवाईयों का निर्माण रोगी की आवश्यकतानुसार होता है?
क्या दवाइयों का परीक्षण एक जैसे रोगियों, वातावरण और परिस्थितियों में किया जाता है? गणित का सिद्धान्त है कि कोई भी समीकरण कुछ निश्चित स्थायी मापदण्ड होने पर ही सही समाधान कर सकता है, परन्तु दवाओं के परीक्षण में ऐसा असम्भव ही होता है। ऐसे परिणाम कभी भी एक जैसे नहीं हो सकते। जब तक दवा का निर्माण रोगी की व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होगा तो उपचार कैसे पूर्ण, प्रभावशाली, स्थायी हो सकता है? मात्र प्रमुख लक्षणों को दबा कर रोग में राहत पाना ही उपचार का ध्येय नहीं होता।
✖57. अच्छी चिकित्सा कौनसी?
अच्छी चिकित्सा कौनसी?
अच्छी चिकित्सा पद्धति शरीर को आरोग्य ही नहीं, निरोग रखती है। अर्थात जिससे शरीर में रोग उत्पन्न ही न हो। रोग होने का कारण आधि (मानसिक रोग), व्याधि (शारीरिक रोग), उपाधि (कर्मजन्य) विकार होते हैं। अतः अच्छी चिकित्सा तीनों प्रकार के विकारों को समाप्त कर समाधि दिलाने वाली होती है। अच्छी चिकित्त्सा पद्धति के लिए आवश्यक होता है- रोग के मूल कारणों का सही निदान, स्थायी एवं प्रभावशाली उपचार। इसके साथ-साथ जिस पद्धति में रोग का प्रारम्भिक अवस्था में ही सही निदान हो सके तथा जो रोगों को भविष्य में रोकने में सक्षम हो। जो पद्धति सहज हो, सरल हो, सस्ती हो, स्वावलम्बी हो, दुष्प्रभावों से रहित हो, पूर्ण अहिंसक हो तथा जिसमें रोगों की पुनरावृति न हो। जो चिकित्सा शरीर को स्वस्थ करने के साथ-साथ मनोबल ओर आत्मबल बढ़ाती हो तथा जो सभी के लिए, सभी स्थानों पर सभी समय उपलब्ध हो। अच्छी चिकित्सा पद्धति के तो प्रमुख मापदण्ड यहीं होते हैं। जो चिकित्सा पद्धतियाँ इन मूल सनातन सिद्धान्तों की जितनी पालना करती हैं, वे उतनी ही अच्छी चिकित्सा पद्धतियाँ होती हैं। अच्छी चिकित्सा का मापदण्ड भीड़ अथवा विज्ञापन नहीं होता अपितु अन्तिम परिणाम होता है। मात्र रोग में राहत ही नहीं, स्थायी उपचार होता है। दवाओं की दासता से मुक्ति होती है।
हमारे मानने अथवा न मानने से सनातन सत्य असत्य नहीं हो जाता। करोड़ों व्यक्तियों के कहने से दो और दो पाँच नहीं हो जाते, दो और दो चार ही होते है। पारस को पत्थर कहने से वह पत्थर नहीं हो जाता और पत्थर को पारस मानने से वह पारस नहीं हो जाता।
✖58. स्वावलम्बी चिकित्सा क्यों अधिक प्रभावशाली?
स्वावलम्बी चिकित्सा क्यों अधिक प्रभावशाली?
स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ रोग के मूल कारणों को दूर करती है। शरीर, मन और आत्मा में तालमेल एवं सन्तुलन स्थापित करती है। शरीर की क्षमताओं और उसके अनुरूप आवश्यकताओं में सन्तुलन रखती है। स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ व्यक्ति में धैर्य, सहनशीलता, सजगता, विवेक, स्वदोष दृष्टि एवं आत्म विश्वास विकसित करती है।
व्यक्ति रोग तो स्वयं पैदा करता है, परन्तु दवा और डाॅक्टर से ठीक करवाना चाहता है। क्या हमारा श्वास अन्य व्यक्ति ले सकता है? क्या हमारा खाया हुआ भोजन दूसरा व्यक्ति पाचन कर सकता है? प्रकृति का सनातन सिद्धान्त है कि जहाँ समस्या होती है उसका समाधान उसी स्थान पर अवश्य होता है। अतः जो रोग शरीर में उत्पन्न होते हैं उनका उपचार शरीर में अवश्य होना चाहिए। शरीर का विवेकपूर्ण एवं सजगता के साथ उपयोग करने की विधि स्वावलम्बी जीवन की आधारशिला होती है। मानव की क्षमता, समझ और विवेक जागृत करना उसका उद्देश्य होता हैं। स्वावलम्बी चिकित्सा में निदान और उपचार में रोगी की भागीदारी एवं सजगता प्रमुख होती है। अतः रोगी उपचार से पड़ने वाले सूक्ष्मतम प्रभावों के प्रति अधिक सजग रहता है, जिससे दुष्प्रभावों की संभावना प्रायः नहीं रहती। ये उपचार बाल-वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित, गरीब-अमीर, शरीर विज्ञान की विस्तृत जानकारी न रखने वाला साधारण व्यक्ति भी आत्मविश्वास से स्वयं कर सकता है।
स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ हिंसा पर नहीं अहिंसा पर, विषमता पर नहीं समता पर, साधनों पर नहीं साधना पर, परावलम्बन पर नहीं स्वावलम्बन पर, क्षणिक राहत पर नहीं, अपितु अन्तिम प्रभावशाली स्थायी परिणामों पर आधारित होती हैं। रोग के लक्षणों की अपेक्षा रोग के मूल कारणों को दूर करती है। शरीर, मन और आत्मा में संतुलन और तालमेल स्थापित करती है। जो जितना महत्वपूर्ण होता है, उसको उसकी क्षमता के अनुरूप महत्व एवं प्राथमिकता देती है। स्वस्थ जीवन जीने हेतु जो अनावश्यक, अनुपयोगी प्रवृत्तियाँ हैं उन पर नियन्त्रण रखने हेतु सचेत करती है। इस प्रकार आधि, व्याधि और उपाधि के संतुलन से समाधि, शांति और स्वस्थता शीघ्र प्राप्त होती है। अतः स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियाँ अन्य चिकित्सा पद्धतियों से अधिक प्रभावशाली होती है। साधन, साध्य एवं सामग्री तीनों पवित्र होते हैं। उपचार से पूर्व रोगी उपचार से पड़ने वाले दुष्प्रभावों के प्रति पूर्ण सावधान रहता है और उसका उपचार अंधेरे में न होने से वह गलत एवं हिंसक दवाओं के सेवन से अपने आपको सहज बचा लेता हैं। अतः जो चिकित्सा पद्धतियाँ जितनी अधिक स्वावलम्बी होती है, रोगी की उसमें उतनी ही अधिक सजगता, भागीदारी होने से वे पद्धतियाँ उतनी ही अधिक प्रभावशाली होती हैं।
✖59. स्वावलम्बी उपचार कितना सरल
स्वावलम्बी उपचार कितना सरल
हम साल के 365 दिनों में अपने घरों में बिजली के तकनीशियन को प्रायः 8 से 10 बार से अधिक नहीं बुलाते। 355 दिन जैसे स्विच चालू करने की कला जानने वाला बिजली के उपकरणों का उपयोग आसानी से कर सकता है। उसे यह जानने की आवश्यकता नहीं होती कि बिजली का आविष्कार किसने, कब और कहाँ किया? बिजलीघर से बिजली कैसे आती है? कितना वोल्टेज, करेन्ट ओर फ्रिक्वेन्सी है? मात्र स्विच चालू करने की कला जानने वाला उपलब्ध बिजली का उपयोग कर सकता है। विभिन्न स्वावलम्बी अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियों की ऐसी साधारण जानकारी से व्यक्ति न केवल स्वयं को स्वस्थ रख सकता है, अपितु असाध्य से असाध्य रोगों का बिना किसी दुष्प्रभाव प्रभावशाली ढंग से उपचार भी कर सकता है। स्विच चालू करने की प्रक्रिया चंद मिन्टों में कोई भी सीख सकता है। मोबाइल का उपयोग करने वालों को बातचीत करने हेतु मोबाइल के सारे पुर्जो की जानकारी आवश्यक नहीं होती। ठीक उसी प्रकार साधारण परिस्थितियों में स्वस्थ रहने हेतु जनसाधारण को शरीर विज्ञान की विस्तृत जानकारी की आवश्यकता नहीं होती।
किसी बात को बिना सोचे समझे स्वीकार करना यदि मूर्खता है तो अनुभूत सत्य को बिना सम्यक् चिन्तन एवं तर्क की कसौटी पर कसे बिना, प्रचार-प्रसार के अभाव में पूर्वग्रसित गलत धारणाओं के कारण अस्वीकार करने वालों को कैसे बुद्धिमान कहा जा सकता है।
✖60. अहिंसक स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ वैकल्पिक नहीं
अहिंसक स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ वैकल्पिक नहीं
मौलिक चिकित्सा कौनसी? स्वावलंबी या परावलम्बी। सहज अथवा दुर्लभ। सरल अथवा कठिन, सस्ती अथवा मँहगी। प्रकृति के सनातन सिद्धान्तों पर आधारित प्राकृतिक या नित्य बदलते मापदण्डों वाली अप्राकृतिक। अहिंसक अथवा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हिंसा, निर्दयता, क्रूरता को बढ़ावा देने वाली। दुष्प्रभावों से रहित अथवा दुष्पभावों वाली। शरीर की प्रतिकारात्मक क्षमता बढ़ाने वाली या कम करने वाली। रोग का स्थायी उपचार करने वाली अथवा राहत पहुँचाने वाली। सारे शरीर को एक इकाई मानकर उपचार करने वाली अथवा शरीर का टुकड़ों-टुकड़ों के सिद्धान्त पर उपचार करने वाली। उपर्युक्त मापदण्डों के आधार पर हम स्वयं निर्णय करें कि कौनसी चिकित्सा पद्धतियाँ मौलिक है और कौनसी वैकल्पिक? मौलिकता का मापदण्ड भ्रामक विज्ञापन अथवा संख्याबल नहीं होता। करोड़ों व्यक्तियों के कहने से दो और दो पाँच नहीं हो जाते। दो और दो तो चार ही होते हैं। अतः स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ भी मौलिक चिकित्सा पद्धतियाँ है, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ नहीं है।
✖61. अहिंसक चिकित्सा पद्धतियों के प्रति स्वास्थ्य मंत्रालय का दृष्टिकोण
अहिंसक चिकित्सा पद्धतियों के प्रति स्वास्थ्य मंत्रालय का दृष्टिकोण
जब किसी भी चिकित्सा पद्धति को सरकारी मान्यता देने का प्रश्न उठाया जाता है तो उन्हें हमारा स्वास्थ्य मंत्रालय बिना सोचे समझे, बिना अध्ययन एवं शोध किये, अवैधानिक बतलाकर नकार देता है। स्वास्थ्य मंत्रालय के प्रभारी अधिकारी न तो उसमें कार्यरत विशेषज्ञों से विचार विमर्श करना आवश्यक समझते हैं और न उन विषयों पर प्रकाशित शोध पूर्ण साहित्य की खोज कर अध्ययन करने में रुचि रखते हैं।
पूरे स्वास्थ्य मंत्रालय पर अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति से संबंधित विशेषज्ञों, दवा निर्माताओं, समर्थकों, प्रशंसकों का एक छत्र आधिपत्य है। परिणाम स्वरूप भारत में अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति को ही लगभग पूर्ण रूपेण सर्वे सर्वा माना जा रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय के बजट का अधिकांश प्रतिशत उन्हीं पर खर्च किया जा रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय का पक्षपात दृष्टिकोण, संकुचित मान्यतायें, अंग्रेजी दवाईयों से पड़ने वाले दुष्प्रभावों को छिपाने की प्रवृति एवं सिर्फ फायदे के एक पक्षीय मिथ्या आंकड़ों को प्रचारित करने से राष्ट्र की भोली-भाली जनता भ्रमित हों, अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रही हैं। फलतः स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ अनियन्त्रित करने में वर्तमान में स्वास्थ्य मंत्रालय की नीतियाँ आग में घी का काम कर रही हैं।
ऐसी परिस्थितियों में राष्ट्र के लिये अधिक उपयोगी, सरल, सुलभ, सस्ती, अहिंसक, स्वावलम्बी, प्रभावशाली, बिना दवा उपचार की विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों को जो सबके लिये सब समय, सब जगह उपलब्ध हो, अपने प्रचार-प्रसार एवं शोध हेतु सरकारी सहयोग कैसे मिले? जन-जन तक उनकी जानकारी कैसे पहुँचाये? स्वास्थ्य में रुचि रखने वाले प्रत्येक नागरिक के चिन्तन का विषय हैं?
✖62. स्वास्थ्य मंत्रालय का दायित्व
स्वास्थ्य मंत्रालय का दायित्व
स्वास्थ्य मंत्रालय का दायित्व है कि जनता के स्वास्थ्य की देखभाल करें। रोग के कारणों से प्रजा को सजग एवं सतर्क करें। रोगियों के लिये प्रभावशाली, सस्ती, स्वावलम्बी, दुष्प्रभावों से रहित चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध करावें तथा अन्य मंत्रालयों से समन्वय रख, स्वास्थ्य के लिये हानिकारक खाद्य में मिलावट एवं कीटनाशक पर आधारित कृषि उपज, शारीरिक अथवा मानसिक प्रदूषण फैलाने वाली गतिविधियों, योजनाओं तथा प्रचार माध्यमों पर अंकुश लगायें। स्वास्थ्य संबंधी प्रभावशाली एवं उपयोगी विश्व के किसी भी क्षेत्र में प्रचलित चिकित्सा पद्धति ध्यान में आते ही उसकी विशेष, जानकारी प्राप्त करने की पहल करें। स्वास्थ्य के लिये हानिकारक, मांसाहार, शराब, एवं अन्य दुव्र्यसनों पर प्रतिबंध लगाकर तथा मनोरंजन के नाम पर हिंसा दर्शाने वाले दृश्यों, विज्ञापनों आदि को प्रचारित करने पर अंकुश लगाकर, जनता को रोग मुक्त रख, अपने दायित्व का निर्वाह करें। जब आयोडिन युक्त नमक के उपयोग हेतु जनता को बाधित किया जा सकता है तो उससे भी अधिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक वस्तुओं पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाया जाता?
✖63. स्वास्थ्य मंत्रालय स्वास्थ्य के प्रति कितना सजग?
स्वास्थ्य मंत्रालय स्वास्थ्य के प्रति कितना सजग?
आज राष्ट्रीय आचरण, नैतिकता, स्वास्थ्य के प्रति सजगता नारों तक सीमित होती जा रही हैं। विज्ञापन, मायावृत्ति, स्वार्थ पोषण एवं अन्धाःनुकरण के इस युग में कभी-कभी जो नहीं पढ़ना चाहिए, वह पढ़ाया जा रहा है। जो नहीं खिलाना चाहिए, वह खिलाया जा रहा है। जो नहीं कराया जाना चाहिए, वह कराया जा रहा है। जो नहीं दिखाना चाहिए, उसे दिखाया जा रहा है। सम्पूर्ण वातावरण पाश्विक वृत्तियों से दूषित हो रहा है। स्वास्थ्य मंत्रालय को सच्चाई जानने, समझने में कोई रुचि नहीं है। उनका आधार है भीड़, संख्या, बल। क्योंकि जनतंत्र में उसी के आधार पर नेता का चुनाव होता है। फलतः उनके माध्यम से राष्ट्र विरोधी, जनसाधारण के लिए अनुपयोगी, स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाली कोई भी गतिविधि आराम से चलाई जा सकती है।
✖64. भ्रान्त विज्ञापनों पर रोक आवश्यक
भ्रान्त विज्ञापनों पर रोक आवश्यक
आज का युग विज्ञान का है। इस युग में विज्ञापन का महत्त्व बहुत बढ़ गया है। जहाँ विज्ञान सत्य से साक्षात्कार कराता है, तो चन्द विज्ञापन सत्य पर परदा ड़ालने का काम करते है। विज्ञान मनुष्य को विकास का मार्ग दिखाता है, तो कुछ भ्रान्त विज्ञापन व्यक्ति को धोखे में रखकर भ्रमित करते है। मेरा सरकार से यह अनुरोध है कि जिस तरह फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड बनाया गया है जो अनुपयोगी दृश्यों को काट-छांट कर उन्हें प्रदर्शित करने की स्वीकृति देता है उसी तरह किसी भी उत्पाद की गुणवत्ता को जांचने के लिए एक संस्था स्थापित होनी चाहिये और यदि वह है तो उसे विज्ञापनों की प्रामाणिकता को जांचने में सक्रिय होना चाहिये। यदि कोई विज्ञापन भ्रामक, असत्य, अर्द्धसत्य या गुणवत्ता विहीन हो, तो उस विज्ञापन के प्रदर्शन पर रोक का प्रावधान हो। जिससे देश की भोली-भाली जनता इन भ्रान्त विज्ञापनों के चक्करों से अपने आपको बचा सके।
✖65. स्वास्थ्य मंत्रालय से अपेक्षाएँ
स्वास्थ्य मंत्रालय से अपेक्षाएँ
स्वास्थ्य मंत्रालय को आधुनिक चिकित्सा पद्धति का अन्धाःनुकरण करने से पूर्व मौलिक चिकित्सा कौनसी और क्यों?, सही निदान के मापदण्ड क्या?, स्वावलम्बी चिकित्सा कौनसी और क्यों?, स्वास्थ्य विज्ञान और भौतिक विज्ञान में अन्तर क्या?, स्वस्थ कौन?, अच्छा स्वास्थ्य कैसा?, रोगी कौन?, रोग क्यों? आदि स्वास्थ्य से जुड़े मूल तथ्यों को परिभाषित करना चाहिये, ताकि अहिंसक चिकित्सा पद्धतियों की उन मापदण्डों के अनुसार तुलना की जा सके। भारत की जनता को रोग मुक्त करने हेतु उनके पास तत्कालीन और दीर्घकालीन क्या योजनाएं है? स्वास्थ्य के नाम पर अरबों रुपयों को खर्चकर अति आधुनिक अस्पतालों के निर्माण एवं चिकित्सकों की संख्या बढ़ने के बावजूद रोग और रोगियों की संख्या में क्यों वृद्धि हो रही है? कैंसर, एड्स, एन्थ्रेक्स, चिकनगुनियां, स्वाइन फ्लू, डेंगू, इबोलो जैसे रोग क्यों पनप रहे हैं? क्या कहीं मूल में तो भूल नहीं हो रही है?
निम्न बिन्दूओं पर मंत्रालय को सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिये ताकि भारत की जनता भविष्य में रोग मुक्त जीवन जी सके।
- क्या राहत को ही सम्पूर्ण उपचार मानना उचित है?
- क्या अच्छी प्रतिरोधक क्षमता वालों को वायरस व कीटाणु रोगी बना सकते हैं?
- क्या टीकाकरण अथवा आधुनिक दवा के सेवन से रोग प्रतिरोधक क्षमता घटती है?
- क्या उपचार में दुष्प्रभावों की उपेक्षा उचित है?
- क्या मन एवं भावों की उपेक्षा करने वाला निदान पूर्ण रूप से सही होता है?
- क्या दो रोगी सम्पूर्ण रूप से एक जैसे हो सकते हैं?
- क्या बाजार में उपलब्ध दवाओं, इंजेक्षनों का परीक्षण समान परिस्थितियों में होता है?
- क्या सम्यक् पुरुषार्थ करने के बावजूद कर्म, नियति, काल और स्वभाव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं?
- क्या उपचार हेतु अनावश्यक हिंसा, निर्दयता, क्रूरता उचित हैं?
- क्या मांसाहार स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है? अगर हां तो सरकार उसके प्रचार पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाती।
- क्या रात्रि भोजन स्वास्थ्यवर्धक होता है?
- क्या भोजन के पोष्टिक तत्व भावना से प्रभावित होते हैं?
- क्या चिकित्सक द्वारा रोगी की उपचार एवं निदान संबंधी सम्यक् जिज्ञासाओं की उपेक्षा करना उचित है?
- क्या रोगी को चिकित्सक द्वारा किये गये गलत उपचार हेतु क्षतिपूर्ति का मंत्रालय द्वारा कानूनी प्रावधान है?
- मौलिक चिकित्सा और वैकल्पिक चिकित्सा कौनसी? स्वावलंबी या परावलंबी?
आज स्वावलंबी चिकित्सा पद्धतियों के बारे में थोड़ा बहुत जो भी प्रयास हो रहा है उसमें व्यक्तिगत अथवा स्वयं सेवी संगठनों का योगदान ही प्रायः होता है। स्वास्थ्य मंत्रालय के पास भारतीय परम्पराओं एवं यहां के वातावरण के अनुरूप स्वास्थ्य संबंधी कोई तर्क संगत नीति अथवा योजना नहीं है, जिससे ऐसा विश्वास किया जा सके कि भविष्य में भारत की जनता रोग मुक्त जीवन जी सकेगी।
✖66. भ्रामक विज्ञापनों का दुष्परिणाम
भ्रामक विज्ञापनों का दुष्परिणाम
सम्पूर्ण स्वास्थ्य मंत्रालय पर आज अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति के प्रशंसको, हित चिन्तकों, समर्थकों का पूर्ण नियंत्रण है। अंग्रेजी चिकित्सा को वैज्ञानिक, विकासोन्मुख, प्रभावशाली, उपयोगी तथा स्वावलम्बी प्रभावशाली चिकित्सा पद्धतियों को अवैज्ञानिक, अविकसित, अनुपयोगी, प्रभावहीन, सहयोगी चिकित्सा के रूप में प्रचारित कर उपेक्षा कर रहा है। दवा निर्माताओं के लुभावने, मायावी, भ्रामक विज्ञापनों एवं दबाव के कारण तथा सरकार का पूर्वग्रसित अविवेकपूर्ण दृष्टिकोण तथा प्रभावशाली स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियों का सही ज्ञान नहीं होने के कारण हमारा स्वास्थ्य मंत्रालय एलोपैथिक चिकित्सा के हितों का पोषक बनकर कार्य कर रहा है। एलोपैथिक चिकित्सा के दुष्प्रभावों को छुपाने की प्रवृति तथा लाभ के एक पक्षीय मिथ्या आंकड़ों को प्रचारित करने की सरकारी माध्यम से छूट मिलने के कारण, राष्ट्र की भोली जनता भ्रमित हो अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रही है।
✖67. टीकाकरण की समीक्षा आवश्यक
टीकाकरण की समीक्षा आवश्यक
स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा चलाये जा रहे रोग नियन्त्रक कार्यक्रम से पड़ने वाले दुष्प्रभाव की निष्पक्ष समीक्षा आवश्यक है। आज विदेशों में जबरदस्ती दवा पिलाने और इंजेक्षन लगाने के विरोध में आन्दोलन हो रहे हैं। उनसे पड़ने वाले दुष्प्रभावों की क्षति पूर्ति के कारण कारखाने बन्द हो रहे हैं। सरकारी अनदेखी के कारण हमारे यहाँ वे ही राष्ट्रीय कार्यक्रमों के रूप में सरकारी संरक्षण में नागरिकों की दुष्प्रभावों के प्रति असजगता के कारण तीव्र गति से चल रहे हैं। मानव शरीर की तुलना दुनिया के सर्वश्रेष्ठ स्वचलित यंत्रों से की जा सकती है। स्वचालित यंत्रों के साथ जितनी कम छेड़-छाड़ की जाए उतना अच्छा होता है। स्वास्थ्य के लिए हमारे शरीर में समाधान हैं, प्रकृति में समाधान हैं, वातावरण में समाधान हैं, भोजन, पानी और हवा के सम्यक् उपयोग और विसर्जन में समाधान हैं। समाधान भरे पड़े हैं, परन्तु उस व्यक्ति के लिए कोई समाधान नहीं है, जिसमें अविवेक और अज्ञान भरा पड़ा है।
स्वतंत्र भारत में आज भी हम अपने स्वास्थ्य के प्रति कितने पराधीन होते जा रहे हैं? हमारा चिन्तन एवं विवेक सुसुप्त हो रहा है? जबरदस्ती टीकाकरण अभियान के पीछे हमारा सोच कितना सही है शोध का विषय है? जिन बच्चों में पोलियों अथवा अन्य किसी रोग के प्रारम्भिक लक्षण भी न हों, बिना निदान किये अन्धाःनुकरण कर टीके लगाना, पोलियों की दवा पिलाना कितना अदूरदर्शिता का द्योतक है? इस संबंध में जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनकी उपेक्षा कर अनायास भावी पीढ़ी को रोगग्रस्त, अशक्त, कमजोर, डरपोक, बनाने का क्यों षडयंत्र किया जा रहा है? जहां साधन, साध्य एवं सामग्री तीनों की पवित्रता संदिग्ध हों, ऐसे तरीकों से शरीर को लम्बे समय तक कैसे स्वस्थ रखा जा सकता है?
✖68. स्वास्थ्य मंत्रालय स्वावलम्बी चिकित्साओं को प्रोत्साहित करें
स्वास्थ्य मंत्रालय स्वावलम्बी चिकित्साओं को प्रोत्साहित करें
कारण चाहे जो हों, तथाकथित अच्छी प्रभावशाली अहिंसक स्वावलंबी मौलिक चिकित्सा पद्धतियां वर्तमान में सरकारी उपेक्षा की शिकार है। सरकार द्वारा न तो उन पर शोध को प्रोत्साहन दिया जा रहा है और न उनके प्रशिक्षण व उपचार व्यवस्था की तरफ सरकार का विशेष ध्यान ही जा रहा है। सरकारी मान्यता और सहयोग का तो प्रश्न ही नहीं। उनकी प्रभावशालीता, अच्छाइयों को बिना सोचे समझें, बिना अध्ययन किये नकारा जा रहा है। भले ही वे चिकित्सा के मापदंडों में सरकारी मान्यता प्राप्त वैज्ञानिक समझी जाने वाली आधुनिक अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति से काफी आगे हो।